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[आवश्यक सूत्र प्रकामशय्या का अर्थ होता है-अत्यन्त सोना, चिरकाल तक सोना (उसमें)। इसके अतिरिक्त प्रकामशय्या का एक अर्थ और भी है, उसमें शेरेतेऽस्यामिति शय्या' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘शय्या' शब्द संथारे के बिछौने का वाचक है। प्रकाम उत्कट अर्थ का वाचक है। इसका अर्थ होता है- प्रमाण से बाहर बड़ी एवं गद्देदार, कोमल गुदगुदी शय्या । यह शय्या साधु के कठोर एवं कर्मठ जीवन के लिए वर्जित है। प्रतिपल के विकट जीवन संग्राम में उसे कहाँ आराम की फुर्सत है। कोमल शय्या का उपभोग करेगा तो अधिक देर तक आलस्य में पड़ा रहेगा। फलतः स्वाध्याय आदि धर्म क्रियाओं का भली-भाँति पालन न हो सकेगा। 'निगामसिज्जाए' का संस्कृत रूप निकामशय्या' है । जिसका अर्थ है-बार-बार अधिक काल तक सोते रहना। ‘प्रकामशय्या' में सोने का उल्लेख है, किन्तु निकामशय्या में सोने के साथ प्रतिदिन और बार-बार शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है अर्थात् प्रकामशय्या का ही बार-बार सेवन करना, बार-बार अधिक काल तक सोये रहना ‘निकामशय्या' है। इससे प्रमाद की अधिक अभिवृद्धि होती है, आत्म-विस्मरण होता है। 2.चरणसत्तरी एवं करणसत्तरी में अन्तर-चरणसत्तरी-चर्यतेऽनेनेति चरणम् । चरण का अर्थ चारित्र होता है। चारित्र का पालन प्रतिसमय होता है। एक प्रकार से चरण को नित्य क्रिया कह सकते हैं। इसके 70 भेद हैं यथा- 5 महाव्रत, 10 प्रकार का श्रमण धर्म, 17 प्रकार का संयम, 10 प्रकार की वैयावृत्त्य, ब्रह्मचर्य की 9 वाड़, 3 रत्न, 12 प्रकार का तप, 4 कषाय का निग्रह । इन 70 भेदों में से 5 महाव्रतादि का मूलगुण में समावेश होता है। करणसत्तरी-क्रियते इति करणम् । करण का अर्थ होता है-क्रिया करना । यह प्रयोजन होने पर की जाती है। प्रयोजन न होने पर न की जाए, अर्थात् जिस अवसर पर जो क्रिया करने योग्य है, उसे करना । करण नैमित्तिक क्रिया है। इसके भी 70 भेद हैं-4 प्रकार की पिण्ड विशुद्धि, 5 समिति. 12 भावना. 12 भिक्ष प्रतिमा. 5 इन्द्रियों का निरोध, 25 प्रकार की पडिलेहणा, 3 गुप्ति, 4 अभिग्रह = कुल 70। स्वाध्याय तथा प्रतिलेखन उत्तर गुण हैं। अतः 25 प्रकार की पडिलेहणा का उत्तर गुण में समावेश होता है। 3. कायोत्सर्ग एवं कायक्लेश में भेद-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन 30 में व्युत्सर्ग का एक ही प्रकार कायोत्सर्ग बताया है तथा तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 9 में अनशनादि के विवेचन में बताया गया है कि व्युत्सर्ग को ही सामान्य रूप से कायोत्सर्ग कहा जाता है। व्युत्सर्ग आभ्यन्तर तप होने के कारण कायोत्सर्ग भी आभ्यन्तर तप है। आभ्यन्तर तप कर्मों की पूर्ण निर्जरा कराने में सक्षम