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परिशिष्ट-4]
235} पहचान है।' “अहंकारी दुःखी थवा तैयार छे, पण झुकी जवा तैयार नथी।" अहंकारी व्यक्ति कभी नमना, झुकना पसंद नहीं करता, क्योंकि उसकी मान्यता है-'Tam Something जब तक जीवन में लघुता नहीं आती, तब तक झुकना संभव नहीं है। 'सव्वे जीवा खमंतु मे' द्वारा साधक मृदुता से परिपूर्ण होकर कहता है- मैंने किसी का अपराध किया हो तो मैं क्षमायाचना करता हूँ। आप मुझे क्षमा करें । उत्तराध्ययन में बताया ‘माणविजएण मद्दवं जणयइ।' मृदुता के साथ क्षमा माँगता है, अतः मान विजय भी उक्त पद द्वारा घटित होता है। मित्ती मे सव्वभूएसु-दशवैकालिक सूत्र अध्ययन 8 में बताया है-'माया मित्ताणि नासेइ' माया मित्रता का नाश करने वाली है। जहाँ कपट है, दंभ है, वहाँ मैत्री कैसी? और जहाँ मैत्री है वहाँ कपट कैसा? वहाँ तो सरलता है, स्वच्छता है, सहृदयता है, निष्कपटता है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना है। कोई लुकाव-छिपाव नहीं है। केवल आत्मिक आत्मीयता है। अपनत्व की अनन्य अनुभूति है। जहाँ अपनत्व है, वहाँ कपट नहीं। मित्रता के लिए सरलता होनी जरूरी है-'मित्ती मे सव्व भूएसु' पद में सरलता झलकती है, जो माया विजय से ही प्राप्त होती है। वेर मज्झं न केणइ-लोभ विजय का सूचक है। लोभ को पाप का बाप बताया है। प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि स्वार्थपूर्ति, उदरपूर्ति से युक्त दृष्टिगोचर होती है और उस स्वार्थपूर्ति में जो वस्तु/व्यक्ति बाधक बनता है, साधक उसके साथ वैर (द्वेष) कर लेता है। इच्छापूर्ति के लिए वह क्या नहीं करता? रथमूसल संग्राम इस बात का साक्षी है । पद्मावती की इच्छापूर्ति के लिए (केवल एक हार-हाथी के लिए) कितना घोर घमासान? उत्तराध्ययन सत्र में बताया- 'लोभनिवत्ति से ही संतोष की प्राप्ति होती है। यदि व्यक्ति संतोषी होगा तो न स्वार्थपूर्ति के लिए उसे इतना भटकना पड़ेगा और न ही इतना किसी से वैर होगा? क्योंकि वैर तो स्वार्थपूर्ति में बाधक बनने वाले से होता है। वे मज्झं न केणइ' द्वारा साधक कहता है- मेरा किसी से कोई वैर नहीं है। मैंने संतोष को अपना लिया है, अब मेरे द्वारा दूसरों को पीड़ा हो, ऐसा कार्य कदापि नहीं होगा। 'संसार के संसरण को समाप्त करने का अभिलाषी सांसारिक विडम्बनाओं से ऊपर उठ आत्मभाव के धरातल पर प्रत्येक जीव में अपनत्व की अनादि से अननुभूत अनुभूति को कर, आत्मविभोर हो-वरं मज्झं न केणई' के उद्घोष को गुंजित करके ही साधना का प्रारम्भ करता है। जैसे मुझे अपने सुख में बाधा मंजूर नहीं है, वैसे ही सभी जीवों को भी दु:ख पसंद नहीं है। अतः वैर को जन्म देने वाले लोभ, लालसा, तृष्णा का त्यागकर मैं संतोष धारण करता हूँ और