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परिशिष्ट-4]
225} को नहीं रोका जा सकता है तथा शरीर के बारह प्रकार के व्यापारों का आगार रखकर ही कायोत्सर्ग साधना की प्रतिज्ञा की जाती है जैसे-छींक आना या सूक्ष्म रूप से अंग का हिलना
आदि। प्रश्न 211. मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों के प्रतिक्रमण करने में क्या अंतर है? उत्तर सम्यग्दृष्टि यदि प्रतिक्रमण करेगा तो उसकी क्रियाओं से पापों का क्षय अर्थात् कर्मों की निर्जरा
तथा पुण्य का बन्ध होगा, जबकि मिथ्यादृष्टि प्रतिक्रमण करेगा तो पुण्य का बंध तो होगा, पर
कर्मो की निर्जरा नहीं होगी। प्रश्न 212. अव्रती को प्रतिक्रमण क्यों करना चाहिये? उत्तर
नन्दीसूत्र में मिथ्याश्रुत के प्रसंग में-".."जम्हा ते मिच्छादिट्ठिआ तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठिओ चयंति।" कई मिथ्यादृष्टि इन ग्रन्थों से (मिथ्याश्रुत से) प्रेरित होकर अपने मिथ्यात्व को त्याग देते हैं। यह बड़े महत्त्व का उल्लेख है और इससे समझ में आता है कि गुरुदेव (आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा.) प्रत्येक मत के अनुयायियों को स्वाध्याय की प्रेरणा क्यों करते थे। कतिपय लोग समझते 'गीता' पढ़ने आदि-मिथ्याश्रुत की प्रेरणा क्यों कर रहे हैं? आदि-आदि उत्तराध्ययन के 28वें अध्याय में सम्यक्त्व के प्रसंग में क्रियारुचि का भी उल्लेख हुआ है; और जब सुदर्शन श्रमणोपासक के पूर्वभव में जंघाचरण संत के मुख से उच्चरित ‘नमो अरिहंताणं' से पशु चराने वाले के जीवन के उत्कर्ष का वर्णन पढ़ते हैं- तब इस प्रश्न का उत्तर अपने आप प्राप्त हो जाता है। मिथ्याश्रत का स्वाध्याय मिथ्यात्व से छटकारा दिला सकता है-तब प्रतिक्रमण (आवश्यक) तो सम्यक् श्रुत है-मिथ्यात्व-अव्रत आदि सभी आस्रवों का त्याग क्यों नहीं करा सकता? एकएक पाठ को सुनने, सीखने से कितनों के भीतर व्रत ग्रहण की प्रेरणा जगती है। व्रत का स्वरूप ध्यान में आता है, फिर स्वीकृत व्रत को अच्छी तरह पाला जा सकता है। कदाचित् व्रत नहीं भी ले पाया-तब भी स्वाध्याय का लाभ तो मिल ही जाता है-परमेष्ठी विनय-भक्ति के साथ चतुर्थ गुणस्थानवर्ती भी कुछ निर्जरा का लाभ प्राप्त कर ही लेता है। भूल से विस्मृत होने पर भी नवकार का श्रद्धापूर्वक स्मरण 'सेठ वचन परमाणं' वाक्य के जाप से चोर को सद्गति में ले जा सकता है तो प्रतिक्रमण प्रत्येक व्यक्ति को संसार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला होने से जीव को मंजिल तक पहुँचाने वाला बन जाता है।