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उत्तर
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[आवश्यक सूत्र दृष्टि से (उपादान दृष्टि से) अधिक आवश्यक है, इसलिए जैन धर्म में प्रतिपादित आवश्यक
विशेष प्रयोजन को लिए हुए होने से और बढ़कर है। प्रश्न 207. जब प्रतिदिन प्रातः सायं प्रतिक्रमण किया जाता है तब फिर पाक्षिक, चातुर्मासिक
आदि प्रतिक्रमण की क्या आवश्यकता है? जिस प्रकार प्रतिदिन मकान की सफाई की जाती है फिर भी पर्व दिनों में वह विशेष रूप से की जाती है। वैसे ही प्रतिदिन प्रतिक्रमण करने पर भी पर्व दिनों में विशेष जागरूकता से शेष रहे अतिचारों का निरीक्षण एवं परिमार्जन किया जाता है। जैसे कि प्रशासनिक क्षेत्र में भी विशेष अभियान चलाकर सरकारी कार्यों एवं लक्ष्यों की पूर्ति की ही जाती है, यद्यपि ये कार्य सरकारी
कार्यालयों में प्रतिदिन किए जाते हैं। प्रश्न 208. दिनभर पापकारी प्रवृत्तियाँ करते रहने पर भी सुबह-शाम प्रतिक्रमण करने से क्या
लाभ? जिस प्रकार कुएँ से डाली गई बाल्टी की रस्सी या आकाश में उड़ाई गई पतंग की डोरी अपने हाथ में हो तो बाल्टी एवं पतंग को हम प्रयास करके पुनः प्राप्त कर सकते हैं । रस्सी या डोरी को पूर्णतया हाथ से छोड़ने पर तो बाल्टी एवं पतंग को हम खो देंगे। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही नियम लागू होता है। प्रतिदिन किए गए अभ्यास से हमारे में संस्कार तो सृजित होते ही हैं, पापाचरण में लगी आत्मा को हम इन सृजित संस्कारों के माध्यम से कभी न कभी तो तप-संवर
रूपी करणी से शुद्ध कर सकते हैं। प्रश्न 209. सॉरी (Sorry)बोलना एवं प्रतिक्रमण करना इन दोनों में क्या सम्बन्ध है, जैन जगत् में
सॉरी के अनुरूप कौनसा शब्द है? व्यवहार जगत् में कोई गलती हो जाने पर मोटे तौर पर हम सॉरी बोलकर उस गलती का निवारण करते हैं। उसी प्रकार प्रतिक्रमण द्वारा हम प्रभु के चरणों में अपने अपराध/दोष/अतिचार गलती को स्वीकार करते हैं और तस्स मिच्छा मि दुक्कड़' पद से उन गलतियों/भूलों को हृदय से
स्वीकार करके क्षमा मांगते हैं । जैन जगत् में सॉरी के अनुरूप 'मिच्छा मि दुक्कड' शब्द है। प्रश्न 210. जैन दर्शन में शरीर विज्ञान के सिद्धांतों का समुचित पालन किया जाता है। प्रतिक्रमण
के संदर्भ में स्पष्ट कीजिये। उत्तर कायोत्सर्ग की साधना हेतु तस्सउत्तरी का पाठ बोलना आवश्यक है एवं इसमें शरीर पर से ममता
का त्याग किया जाता है। तस्सउत्तरी के पाठ में यह ध्वनित होता है कि शरीर के प्राकृतिक कार्यों
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