________________
{ 154
[आवश्यक सूत्र आवस्सयं अवस्स करणिज्जं, धुव निग्गहो विसोही य।
अज्झयणे छक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो।। (अ) आवश्यकं-अवश्यं क्रियते इति आवश्यकं अर्थात् जो साधना चतुर्विध संघ के द्वारा अवश्य करने योग्य हो, उसे आवश्यक कहते हैं । (आ) अवश्यकरणीय-मुमुक्षु साधकों के द्वारा नियम पूर्वक अनुष्ठेय (करने योग्य) होने के कारण अवश्य करणीय है। (इ) ध्रुव निग्रह-अनादि होने के कारण कर्मों को ध्रुव कहते हैं। कर्मों का फल जन्म, जरा, मरणादि संसार भी अनादि है । अत: वह भी अनादि कहलाता है । जो कर्म और कर्मफल स्वरूप संसार का निग्रह करता है, वह ध्रुव निग्रह है। (ई) विशोधि-कर्मों से मलिन आत्मा की विशुद्धि का हेतु होने से आवश्यक विशोधि कहलाता है। (उ) अध्ययन षट्वर्ग-आवश्यक सूत्र के सामायिक
आदि 6 अध्ययन हैं, अत: अध्ययन षट्वर्ग है। (ऊ) न्याय-अभीष्ट अर्थ की सिद्धि का सम्यक् उपाय होने से न्याय है तथा आत्मा और कर्म के अनादिकालीन सम्बन्ध का अपनयन (दूर) करने के कारण भी न्याय कहलाता है। (ए) आराधना-मोक्ष की आराधना का हेतु होने से आराधना है। (ऐ) मार्ग-मोक्षपुर का प्रापक (मार्ग-उपाय) होने से मार्ग है।
(3) आवश्यक के छः प्रकार-अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यक के प्रकार बताए गये हैं-'सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउस्सगो पच्चक्खाणं' (1) सामायिक-समभाव की साधना । (2) चतुर्विंशतिस्तव-वीतराग देव की स्तुति । (3) वन्दन-गुरुदेवों को वन्दन । (4) प्रतिक्रमण-संयम में लगे दोषों की आलोचना । (5) कायोत्सर्ग-शरीर के ममत्व का त्याग । (6) प्रत्याख्यान-नये व्रतों का ग्रहण जैसे चौविहार, नवकारसी, पौरुषी आदि का ग्रहण । अनुयोगद्वार सूत्र में 6 आवश्यकों के अर्थाधिकार का उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है
'सावज्ज जोग-विरई, उक्कित्तणं गुणवओ य पडिवत्ती।
खलियस्स निंदणा, वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव ।।' (1) सावध योग विरति-प्राणातिपात, असत्य आदि सावध योगों का त्याग करना । सावध योगों का त्याग करना ही सामायिक है। (2) उत्कीर्तन-तीर्थङ्कर देव स्वयं कर्मों को क्षय करके शुद्ध हुए हैं और दूसरों की आत्मा शुद्धि के लिए सावद्ययोग विरति का उपदेश दे गये हैं। अत: उनके गुणों का कथन करना उत्कीर्तन है। यह चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का अर्थाधिकार है। (3) गुणवत्प्रतिपत्ति-अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों के धारक संयमी गुणवान हैं, उनकी वन्दनादि के द्वारा उचित नय प्रतिपत्ति करना गुणवत्प्रतिपत्ति है। यह वन्दन आवश्यक है। (4) स्खलित निंदना-संयम क्षेत्र से विचरण करते हुए साधक से प्रमादादि के कारण स्खलना हो जाती है, उनकी शुद्ध बुद्धि से संवेग की परमोत्तम भावना में पहुँचकर निंदा करना स्खलित निंदना है। दोष को दोष मानकर उससे पीछे हटना प्रतिक्रमण अर्थाधिकार है। (5) व्रण चिकित्सा