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परिशिष्ट - 4 ]
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प्रश्न 125. बारहवें व्रत को धारण करने वालों को मुख्य रूप से किन-किन बातों का ध्यान रखना
चाहिए?
1. भोजन बनाने वाले और करने वालों को सचित्त वस्तुओं का संघट्टा न हो इस प्रकार बैठना चाहिए। 2. घर में सचित्त अचित्त वस्तुओं को अलग-अलग रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। 3. सचित्त वस्तुओं का काम पूर्ण होने पर उनको यथास्थान रखने की आदत होनी चाहिए। 4. कच्चे पानी के छींटे, हरी वनस्पति का कचरा व गुठलियाँ आदि को घर में बिखेरने की प्रवृत्ि नहीं रखनी चाहिए। 5. धोवन पानी के बारे में अच्छी जानकारी करके अपने घर में सहज बने अचित्त कल्पनीय पानी को तत्काल फेंकने की आदत नहीं रखनी चाहिए, उसे योग्य स्थान में रखना चाहिए। 6. दिन में घर का दरवाजा खुला रखने की प्रवृत्ति रखनी चाहिए। 7. साधु मुनिराज घर में पधारें तो सूझता होने पर तथा मुनिराज के अवसर होने पर स्वयं के हाथ से दान देने की उत्कृष्ट भावना रखनी चाहिए। 8. साधुजी की गोचरी के विधि-विधान की जानकारी, उनकी संगति, चर्चा एवं शास्त्र स्वाध्याय से निरंतर आगे बढ़ाते रहना चाहिए। 9. साधु मुनिराज गवेषणा करने के लिए कुछ भी पूछताछ करे तो झूठ नहीं बोलना चाहिए । प्रश्न 126. संत-सतियों को कितने प्रकार की वस्तुएँ दान दे सकते हैं?
उत्तर
मुख्यतः चीदह प्रकार की वस्तुएँ दान दे सकते हैं। उनका वर्णन आवश्यक सूत्र के 12वें अतिथि संविभाग व्रत में इस प्रकार है- अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, चौकी, पट्टा, पौषधशाला (घर), संस्तारक, औषध और भेषज । इनमें अशन से रजोहरण क की वस्तुएँ अप्रतिहारी तथा चौकी से भेषज तक की वस्तुएँ प्रतिहारी कहलाती हैं। जो लेने के बाद वापस न लौटा सकें, वे अप्रतिहारी तथा जो वापस लौटा सकें, वे वस्तुएँ प्रतिहारी कहलाती हैं। प्रश्न 127. बारहवें व्रत में करण - योग क्यों नहीं है ?
उत्तर
बारहवें व्रत में साधु-साध्वी को चौदह प्रकार की निर्दोष वस्तुएँ देने तथा भावना भाने का उल्लेख है। पापों के त्याग का वर्णन नहीं होने से इसमें करण योग की आवश्यकता नहीं है।
उत्तर
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प्रश्न 128. बारह व्रतों में कितने विरमण व्रत व कितने अन्य व्रत हैं ? कारण सहित स्पष्ट कीजिए ? उत्तर बारह व्रतों में पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ व आठवाँ व्रत विरमण व्रत कहलाते हैं, क्योंकि इनमें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह व अनर्थदण्ड का क्रमशः त्याग किया जाता है। छठा व सातवाँ व्रत परिमाण व्रत कहलाते हैं, क्योंकि इनमें दिशाओं एवं खाने-पीने की मर्यादा की जाती है । सामान्यत: श्रावक पूर्ण त्याग नहीं कर पाता, वह मर्यादा ही करता है, इसलिये उन्हें परिमाण व्रत कहा है ।