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परिशिष्ट-4]
187} प्रश्न 132. पाँचवाँ, छठा और सातवाँ व्रत प्रायः एक करण-तीन योग से क्यों लिए जाते हैं? उत्तर क्योंकि श्रावक अपने पास मर्यादा उपरान्त परिग्रह हो जाने पर जैसे वह उसे धर्म या पुण्य में व्यय
करता है, वैसे ही वह अपने पुत्र/पुत्री आदि को भी देने का ममत्व त्याग नहीं पाता । इसी प्रकार जिसका अब कोई स्वामी नहीं रह गया हो, ऐसा कहीं गड़ा हुआ परिग्रह मिल जाये, तो भी वह उसे अपने स्वजनों को देने का ममत्व त्याग नहीं पाता । अथवा अपने पुत्रादि, जिन्हें परिग्रह बाँटकर पृथक् कर अपने-अपने व्यवसाय में स्थापित कर दिया हो, उनको व्यावसायिक सलाह देने का प्रसंग भी उपस्थित हो ही जाता है। इसी प्रकार छठे सातवें व्रत की भी स्थिति है, जैसे श्रावक अपनी की हुई दिशा की मर्यादा के उपरांत स्वयं तो नहीं जाता, पर कई बार उसे अपने पुत्रादि को विद्या, व्यापार, विवाह आदि के लिए भेजने का प्रसंग आ जाता है। ऐसे ही उपभोग-परिभोग वस्तुओं की या कर्मादानों की जितनी मर्यादा की है, उसके उपरांत तो वह स्वयं भोगोपभोग या कर्म नहीं करता, परन्तु उसे अपने पुत्रादि को कहने का अवसर आ जाता है। इसलिए श्रावक पाँचवें, छठे और सातवें व्रत का प्रायः 'मैं नहीं करूँगा' इतना ही व्रत ले पाता है, परन्तु मैं नहीं कराऊँगा', यों व्रत नहीं ले
पाता। विशिष्ट श्रावक इन व्रतों को दो करण तीन योग आदि से भी ग्रहण कर सकते हैं। प्रश्न 133. प्रतिक्रमण में जावज्जीवाए, जावनियम तथा जाव अहोरत्तं शब्द कहाँ-कहाँ आते हैं? उत्तर जावज्जीवाए-पहले से आठवें व्रत में व बड़ी संलेखना के पाठ में।
जावनियम- नवमें व्रत में।
जाव अहोरत्तं- दसवें व ग्यारहवें व्रत में। प्रश्न 134. व्रत और पच्चक्खाण में क्या अन्तर हैं? व्रत
पच्चक्खाण 1. विधि रूप प्रतिज्ञा व्रत है। जैसे-मैं 1. निषेध रूप प्रतिज्ञा जैसे-कि सावद्य योगों का सामायिक करता हूँ। साधु के लिए 5 त्याग करता हूँ । या आहार को वोसिराता हूँ। महाव्रत होते हैं । श्रावक के लिए 12 व्रत होते हैं। 2. व्रत मात्र चारित्र में ही है।
2. पच्चक्खाण चारित्र व तप में भी आते हैं। 3. करण कोटि के साथ होते हैं।
3. बिना करण कोटि के भी होते हैं। 4. व्रत लेने के पाठ के अंत में 'तस्स भंते' से 4. (आहार के) पच्चक्खाण में अन्नत्थणा'अप्पाणं वोसिरामि' आता है।
भोगेणं' से वोसिरामि आता है।
उत्तर
3.