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परिशिष्ट-4]
199} तीर्थङ्कर भगवन्त आदि दीक्षा का प्रत्याख्यान करते समय वोसिरामि' नहीं बोल सकते । स्वयं की दीक्षा में वोसिरामि' बोलते हैं । जब दीक्षा प्रदाता तीर्थङ्कर भगवन्त सैकड़ों-हजारों मुमुक्षुओं
को दीक्षा प्रदान कर सकते हैं तो पच्चक्खाण में वोसिरे' बोलने में क्या आपत्ति? प्रश्न 157. वर्तमान में प्रत्याख्यान आवश्यक के अंतर्गत मात्र आहारादि का प्रत्याख्यान किया
जाता है। दसों प्रत्याख्यान आहारादि के त्याग से ही संबंधित हैं। मिथ्यात्व, प्रमाद,
कषायादि के त्याग का प्रयोजन इस आवश्यक से कैसे हल हो सकता है? उत्तर जिज्ञासा में सबसे पहला शब्द है-'वर्तमान' । यह केवल वर्तमान में ही नहीं, पूर्व से प्रचलित है। उत्तराध्ययन के 26वें अध्याय की गाथा 51, 52 में देखिए
किंतवं पडिवज्जामि एवं तत्थ विचिंतए। काउस्सग्गं तु पारित्ता वंदिऊण तओ गुरुं ।।।1।। पारिय काउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं।
तवंसे पडिवज्जेत्ता करिज्जा सिद्धाण संथवं ।।52 ।। स्पष्ट है पाँचवें आवश्यक में चिन्तन करके छठे आवश्यक में तप स्वीकार करे । रात्रिकालीन प्रतिक्रमण के पाँचवें आवश्यक में अपना सामर्थ्य तोले- क्या मैं 6 मास तप अंगीकार कर सकता हूँ? यदि नहीं, तो क्या 5 मास? यावत् उपवास, आयंबिल''नहीं तो कम से कम नवकारसी उपरांत तो स्वीकार करूँ । देवसिक में चिन्तन बिना, छठे आवश्यक में गुणधारण किया जाता है। यह भगवती सूत्र शतक 7 उद्देशक 2 में वर्णित सर्वउत्तर गुण प्रत्याख्यान रूप होता है। सर्व मूलगुण (5 महाव्रत), देश मूलगुण(5 अणुव्रत) व देश उत्तर गुण (3 गुणव्रत, 4 शिक्षाव्रत) चारित्र अथवा चारित्राचारित्र में आते हैं, जबकि देश मूल गुण तप में। उत्तराध्ययन की गाथा 'तप' का ही कथन कर रही है, अतः देश मूल गुण प्रत्याख्यान प्राचीन काल से प्रचलित है। सम्यक्त्व ग्रहण करने के लिए किसी भी प्रत्याख्यान का आगम में उल्लेख नहीं। वर्तमान में अरिहंत मेरे देव, सुसाधु गुरु के द्वारा बोध प्रदान कर उपासकदशांग आदि के वर्णन द्वारा पुष्ट, हिंसाकारी प्रवृत्ति में प्रवृत्त सरागी देवों से बचने व कुव्यसन त्याग का ही नियम कराया जाता है। सम्यक् श्रद्धान एवं जानकारी पूर्वक ही सुपच्चक्खाण होते हैं। साधक दो प्रकार के होते हैं-त्रिकरण त्रियोग से आगार रहित पाँच आस्रव का त्यागकर पाँच महाव्रत लेने वाले अथवा भगवती शतक 8 उद्देशक 5 के अनुसार 49 ही भाँगों में से किसी के