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[आवश्यक सूत्र सम्यक्त्व में भी दोष लगाते हैं। बाह्य आडम्बर देखना, उनकी आकांक्षा करना, संयम के मूल दर्शन गुण में अतिचार का कारण होता है। साधक का जीवन कई भव्य आत्माओं द्वारा अनुकरणीय होता है। वे आत्माएँ साधक को ऐसा करते हुए देखेंगी तो उनके पवित्र हृदय में भी उस स्थान के प्रति श्रद्धा जग सकती है। अतः ऐसी अनुचित प्रवृत्ति से साधुत्व
तो मलिन होता ही है, अन्यान्य जीवों को भी दिग्भ्रम होता है। 5. निर्धारित समय पर निर्धारित घर में चाय लेने जाना-अतिचार संख्या 53 वाँ, साथ ही
और भी कई साधक वर्ग मात्र संयम-पालन के लिए आहार-पानी ग्रहण करते हैं। ऐसे जीवन में चाय, काफी आदि तामसिक पदार्थों की तो कोई आवश्यकता ही नहीं होती। बीमारी आदि के समय उस अवस्था में इन पदार्थों की आवश्यकता हो सकती है, किन्तु नियमितता तथा निर्धारितता नहीं होती। यहाँ चाय के समान अन्य खाद्य पदार्थों को भी समझा जाए। यदि निर्धारित समय पर चाय आदि लेने जाए तो एषणा समिति के कई अतिचारों की संभावना रहती है। आधाकर्मी-गृहस्थ को पता रहेगा कि अभी साधुसाध्वी यह पदार्थ लेने आने वाले हैं तो वह स्वयं की आवश्यकता न होने पर भी उनके लिए बनाकर रखेगा। इसमें ठवणा की भी पूरी-पूरी संभावना रहती है। मिश्रजात- अध्यवपूरक जैसे कई अतिचारों की संभावना बनी हुई रहती है। स्वयं की लोभवृत्ति होने से रसनेन्द्रियअसंयम होगा और अखण्ड रूप से ग्रहण किये गये पहले व 5वें महाव्रत में भी दोष लगेगा। स्वयं की लोभ प्रवृत्ति उत्पादना का भी दोष है। महाव्रतों, समिति आदि में दोष
रूप थोड़ी सी चाय भारी कर्मबंध की हेतु बन सकती है। 6. मनपसंद वस्तु स्वाद लेकर खाना-अतिचार संख्या 43 और 98 स्पर्शनेन्द्रिय असंयम ।
साधक को आहार, रसनेन्द्रिय के विषय को वश में रखकर करना चाहिए। मनोज्ञ वस्तु मिलने पर उसकी प्रशंसा करते हुए खाने से संयम कोयले के समान हो जाता है। इससे तीसरी समिति में दोष लगता है, उस वस्तु के प्रति राग रखने से अपरिग्रह महाव्रत भी दूषित होता है। चारों प्रहर में स्वाध्याय नहीं करना-अतिचार संख्या 12वाँ काले न कओ सज्झाओसाधक को ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की निर्जरा के लिए, अप्रमत्तता को बनाये रखने के लिए, चारों काल में स्वाध्याय करना चाहिए। अगर वह चारों प्रहर में स्वाध्याय नहीं करता है तो ज्ञान का अतिचार लगता है। ज्ञान के प्रति बहमान, आदर के भाव होने पर तो