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[आवश्यक सूत्र
{ 220 प्रश्न 197. आवश्यक सूत्र को प्रतिक्रमण सूत्र क्यों कहा जाता है? उत्तर कारण कि आवश्यक सूत्र के छ: आवश्यकों में से प्रतिक्रमण आवश्यक सबसे बड़ा एवं
महत्त्वपूर्ण है। इसलिये वह प्रतिक्रमण के नाम से प्रचलित हो गया है। दूसरा कारण वास्तव में प्रथम तीन आवश्यक प्रतिक्रमण की पूर्व क्रिया के रूप में और शेष दो आवश्यक उत्तरक्रिया के
रूप में किये जाते हैं। प्रश्न 198. प्रतिक्रमण आवश्यक क्यों है? उत्तर प्रतिक्रमण साधकजीवन की एक अपूर्वकला है तथा जैन साधना का प्राणतत्त्व है। ऐसी कोई भी
क्रिया नहीं, जिसमें प्रमादवश दोष न लग सके। उन दोषों से निवृत्ति हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिये । प्रतिक्रमण में साधक अपने जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति का अवलोकन, निरीक्षण करते हुए इन दोषों से निवृत्त होकर हल्का बनता है। प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, क्योंकि तन का रोग अधिक से अधिक एक जन्म तक ही पीड़ा दे सकता है, किन्तु मन का रोग एक बार प्रारम्भ होने के बाद, यदि व्यक्ति असावधान रहा तो
हजारों ही नहीं, लाखों जन्मों तक परेशान करता है। प्रश्न 199. प्रतिक्रमण करने से क्या-क्या लाभ हैं? उत्तर 1. लगे हुए दोषों की निवृत्ति होती है।
2. प्रवचन माता की आराधना होती है। 3. तीर्थङ्कर नाम कर्म का उपार्जन होता है। 4. व्रतादि ग्रहण करने की भावना जगती है। 5. अपने दोषों की आलोचना करके व्यक्ति आराधक बन जाता है। 6. आवश्यक सूत्र की स्वाध्याय होती है।
7. अशुभ कर्मों के बंधन से बचते हैं। प्रश्न 200. प्रतिक्रमण से मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार संभव है?
आत्मा को परमात्मा बनने में सबसे बड़ी रुकावट उसके साथ लगे हुए कर्म ही हैं । ये संचित कर्म तप के द्वारा क्षय किये जाते हैं एवं नये आने वाले कर्मों को संवर द्वारा रोका जाता है। दशवैकालिक सूत्र में वर्णित है कि 'खवित्ता पुव्वकम्माइं संजमेण तवेण य।' प्रतिक्रमण में प्रथम आवश्यक द्वारा संवर की, द्वितीय एवं तृतीय आवश्यक में विनय तप की, चतुर्थ आवश्यक में प्रायश्चित्त तप की, पंचम आवश्यक में कायोत्सर्ग तप की एवं छठे आवश्यक में संवर की
उत्तर