Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 251
________________ परिशिष्ट-4] 215} स्वाध्याय निरन्तर होता है । ज्ञान आराधना के प्रति लापरवाह हो स्वाध्याय नहीं करने से ज्ञानातिचार लगता है। 8. अयतना से बैठना-अतिचार संख्या 118-120 कायगुप्ति नहीं रखना तथा 100-101 निक्षेपणा समिति का पालन न करना । साधु का जीवन यतना प्रधान जीवन है। उठना, बैठना, सोना, खाना, चलना आदि सभी कार्यों में यतना अत्यावश्यक है। उपासक वर्ग के लिए 5 समिति के साथ ही 3 गुप्ति भी ध्यातव्य है । अयतना से बैठना, हाथ-पैर फैलाना, समेटना आदि प्रवृत्तियाँ काय गुप्ति की खण्डना करती हैं। अतः साधक को दिन में विवेकपूर्वक देखकर तथा रात्रि में पूँजकर बैठना चाहिए । यहाँ तक कि रात्रि में दीवार का सहारा भी लेना पड़े तो बिना दीवार को पूँजे, सहारा लेना काय-अगुप्ति है। काया भी संयम में एक सहयोगी साधन ही है। उसमें अयतना चौथी समिति में भी दोष का कारण है। 9. शीतल वायु के स्पर्श से सुख अनुभव करना-अतिचार क्रम संख्या 44 स्पर्शनेन्द्रिय असंयम । साधक को वीतराग भगवन्तों ने आगम में स्थान-स्थान पर इन्द्रियों को वश में रखने की प्रेरणा दी है। संयम भी तभी सुरक्षित रह सकता है। अतः साधक कछुए के समान इन्द्रियों को गोपित करते हुए चले । संयमी साधक ग्रीष्मऋतु में शीतलवायु आने के स्थान को ढूँढ कर वहाँ बैठकर सुख का अनुभव करता है तो अपरिग्रह महाव्रत में दोष लगता है। शरीर पर मोह होना भी परिग्रह का ही रूप है। प्रश्न 184. 33 आशातना में आवश्यक सूत्र व दशाश्रुत स्कन्ध के अधिकार में क्या अन्तर है? उत्तर गुरु का विनय नहीं करना या अविनय करना, ये दोनों आशातना के प्रकार हैं। आशातना देव एवं गुरु की तथा संसार के किसी भी प्राणी की हो सकती है। धर्म-सिद्धान्तों की भी आशातना होती है। अतः आशातना की विस्तृत परिभाषा इस प्रकार से कर सकते हैं- “देव-गुरु की विनयभक्ति न करना, अविनय अभक्ति करना, उनकी आज्ञा-भंग करना या निन्दा करना, धर्मसिद्धान्तों की अवहेलना करना, विपरीत प्ररूपणा करना और किसी भी प्राणी के साथ अप्रिय व्यवहार करना, उसकी निन्दा या तिरस्कार करना ‘आशातना' है। अर्थात् असभ्य व्यवहार करना, आवश्यक सूत्र की चौथी पाटी में अरिहन्त भगवान आदि की जो आशातनाएं बताई गई हैं, वे इस तरह की आशातनाएँ हैं। जबकि दशाश्रुतस्कन्ध की तीसरी दशा में जो आशातनाएँ प्रदर्शित की गई हैं वे केवल गुरु और रत्नाधिक (संयम पर्याय में ज्येष्ठ) की आशातना से ही संबंधित हैं। गुरु के आगे, बराबर, पीछे अड़कर चलना । इसी तरह खड़े रहना तथा अविनय से

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