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[आवश्यक सूत्र उनके समीप बैठना से लगाकर गुरुदेव से ऊँचे आसन पर बैठने तक की 33 आशातनाएँ दशाश्रुत
स्कन्ध में वर्णित हैं। मुख्य अन्तर यही ध्यान में आता है। प्रश्न 185. श्रमण सूत्र के तैंतीस बोल के चौथे बोल में पडिक्कमामि चउहिं झाणेहिं' बोला जाता
है तथा अन्त में मिच्छामि दुक्कडं दिया जाता है। आर्त-रौद्र ध्यान का मिच्छामि
दुक्कडं तो समझ में आया, किन्तु धर्मध्यान और शुक्लध्यान का अतिचार कैसे? उत्तर आर्त और रौद्र ध्यान के करने से तथा धर्म और शुक्ल ध्यान के न करने से जो भी अतिचार लगा
हो, उसका प्रतिक्रमण (मिच्छामि दुक्कडं) करता हूँ। आगम की शैली है-जैसे श्रावक प्रतिक्रमण में-इच्छामि ठामि में-तिण्हंगुत्तीणं चउण्हं कसायाणं... का अर्थ भी तीन गुप्तियों के नहीं पालन व चार कषायों के सेवन का प्रतिक्रमण करना ही समझा जाता है। इस 33 बोल में 3 गुप्ति, ब्रह्मचर्य की नववाड़, ग्यारह श्रावक प्रतिमा, 12 भिक्षु प्रतिमा, 25 भावना, 27 अणगार गुण व 32 योग संग्रह आदि में धर्म-शुक्ल ध्यान के समान नहीं करने का, नहीं पालने का मिच्छा मि दुक्कडं है, जबकि अनेक में उनके सेवन का व कइयों में श्रद्धान
प्ररूपण की विपरीतता का मिच्छा मि दुक्कडं है। प्रश्न 186. 33 बोल श्रमणसूत्र का ही एक भाग है उसके उपरान्त भी 33 बोल के हिन्दीकरण करने
की क्या आवश्यकता है? हिन्दी क्या अब तो अंग्रेजी में भी अनुवाद करना पड़ेगा। समय-समय पर प्रचलित भाषा में विवेचन करना अनुपयुक्त कैसे? पहले संस्कृत में था, आज गुजरात में गुजराती में है, शेष स्थानों पर हिन्दी में है। मूल सुरक्षित है, प्रतिक्रमण में उसे ही बोलते हैं, शेष विवेचन, मात्र
उचित ही नहीं, उपादेय व उपयोगी भी है। प्रश्न 187. स्थानकवासी परम्परा में दो प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में क्या धारणा है? उत्तर प्रमुखतया तीन प्रकार की परिपाटी चल रही है-1. तीन चौमासी और एक संवत्सरी- इन चार
दिवसों में दो प्रतिक्रमण करना। 2. केवल कार्तिक चौमासी को दो प्रतिक्रमण करना। 3. दो
प्रतिक्रमण कभी नहीं करना। प्रश्न 188. इस विविधता का क्या हेतु है? उत्तर ज्ञाताधर्मकथा के पाँचवें अध्याय में शैलक राजर्षि जी को पंथकजी ने कार्तिक चौमासी के दिन
उत्तर