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परिशिष्ट-4]
217} दैवसिक प्रतिक्रमण में जागृति प्राप्त नहीं होने पर चातुर्मासी प्रतिक्रमण की आज्ञा ली, परिणामस्वरूप
प्रमाद का परिहार कर शैलक जी शुद्ध विहारी बने। प्रश्न 189. इससे तीन मत कैसे बने? उत्तर 1. प्रथम मत कहता है कि आगम में दो प्रतिक्रमण के विधि-निषेध का उल्लेख नहीं है। चरित्र
के अन्तर्गत आए उल्लेख को स्वीकार कर कार्तिक चौमासी को दो प्रतिक्रमण करने चाहिए। चार माह तक एक स्थल पर रहने से प्रमाद (राग) विशेष बढ़ सकता है, उसके विशेष निराकरण के लिए दो प्रतिक्रमण करना चाहिए। शेष दो चौमासी व संवत्सरी का
आगम में कहीं भी उल्लेख नहीं है, अतः उनमें नहीं करना चाहिए। 2. दूसरे मत का कथन है कि जब एक चौमासी को दो प्रतिक्रमण किये तो बाकी दो चौमासी
को भी करना चाहिए और संवत्सरी चौमासी से बड़ी है, तब तो अवश्य करना चाहिए। 3. तीसरा मत कहता है कि आगम में विधिपूर्वक कहीं उल्लेख नहीं है। बीच के 22 तीर्थङ्करों
के शासन व महाविदेह क्षेत्र में सामायिक चारित्र होता है, अस्थित कल्प होता है। छेदोपस्थापनीय चारित्र व स्थित कल्पी प्रथम व अन्तिम जिन के शासन में ही चौमासा व प्रतिक्रमण आदि कल्प (मर्यादा) अनिवार्य होते हैं। बीच के तीर्थङ्करों की व्यवस्था से अन्तिम तीर्थङ्कर के शासन की व्यवस्था भिन्न होती है, अतः एक ही प्रतिक्रमण करना
चाहिए। प्रश्न 190. तो दो प्रतिक्रमण करने में, अधिक करने में नुकसान क्या है ? उत्तर नहीं, आगम के विधान से अधिक करना भी दोष व आगम आज्ञा का भंग है, प्रायश्चित्त का
कारण है। अच्चक्खरं का दोष आगमे तिविहे' के पाठ में है और इसी प्रकार की क्रिया के सम्बन्ध में भी उल्लेख है। दूसरी बात फिर कोई कह सकता है-पक्खी को भी दो प्रतिक्रमण होने चाहिए। चौमासी को देवसिय, पक्खी व चौमासी-ये तीन होने चाहिए। आगम (उत्तराध्ययन अध्ययन 26) स्पष्ट ध्वनित कर रहा है कि पोरसी के चतुर्थ भाग (लगभग 45 मिनिट) में प्रतिक्रमण हो जाना चाहिए। चौमासी-संवत्सरी को अधिक लोगस्स का कायोत्सर्ग होने से प्रायः कुछ समय अधिक हो जाता है। विक्रम सम्वत् 1990 में अजमेर साधु सम्मेलन में जहाँ 27 सम्प्रदाय के मूर्धन्य मुनिराजों ने मिलकर यह निर्णय लिया था कि साध. साध्वी एवं श्रावक-श्राविकागण चौमासी, संवत्सरी