________________
परिशिष्ट-4]
197} जीव मूलभेद वर्ण गंध रस स्पर्श संस्थान कुल साधारण वनस्पति 500 x 5 2 5 8 5 10 लाख प्रत्येक वनस्पति 700 x 5 2 5 8 5 14 लाख बेइन्द्रिय 100 x 5 2 5 8 5 2 लाख तेइन्द्रिय 100 x 5 2 5 8 5 2 लाख चउरिन्द्रिय 100 x 5 2 5 8 5 2 लाख तिर्यंच पंचेन्द्रिय 200 x 5 2 5 8 5
4 लाख 700 x 5 2 585 14 लाख देवता
200 x 5 2 5 8 5 4 लाख नारकी 200 x 5
4 लाख
wwwwwwwww
मनुष्य
-
--
---
-
84 लाख प्रश्न 153. कायोत्सर्ग आवश्यक में सदा समान संख्या में लोगस्स का ध्यान क्यों नहीं किया जाता है? उत्तर दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में पिछले लगभग 15 मुहूर्त (12 घण्टे) जितने अल्प समय में
लगे अतिचारों की ही शुद्धि करनी होती है। अतः उस शुद्धि के लिए मात्र चार लोगस्स का ही ध्यान पर्याप्त होता है, पर पाक्षिक प्रतिक्रमण में 15 दिनों में लगे अतिचारों की शुद्धि करनी होती है, अतः चार लोगस्स से दुगुने 8 लोगस्स का ध्यान आवश्यक होता है तथा चातुर्मासिक में चार माह में लगे अतिचारों की एवं सांवत्सरिक में वर्षभर में लगे अतिचारों की शुद्धि करनी होती है। अतः क्रमशः तीन गुने 12 व पाँच गुने 20 लोगस्स का ध्यान आवश्यक होता है । आचार्यों द्वारा
इनकी संख्या उपर्युक्तानुसार निर्धारित की गई हैं। प्रश्न 154. कायोत्सर्ग का क्या तात्पर्य है? उत्तर काया की ममता का त्याग । तप के 12वें भेद, आभ्यन्तर तप के अन्तिम भेद व्युत्सर्ग के प्रथम
द्रव्य व्युत्सर्ग का पहला उपभेद-शरीर व्युत्सर्ग' है। इसे उत्तराध्ययन के 26वें अध्याय में 'सव्वदुक्खविमोक्खणं' कहा अर्थात् सम्पूर्ण दुःखों से छुटकारा दिलाने वाला माना । दुःख क्यों है? तो उत्तराध्ययन 6/12 में शरीर की आसक्ति को दुःख का मोटा कारण कहा- आसक्ति छूटी, ममता मिटी और दुःख की संभावना घटी। अतः सुस्पष्ट हुआ कि शरीर की ममता की तिलांजलि कायोत्सर्ग है। भाव कायोत्सर्ग ध्यान को कहकर द्रव्य रूप से- नैसर्गिक श्वास,