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[आवश्यक सूत्र द्वारा पाँच अणव्रत ले उनकी पुष्टि में 7 देश उत्तर गुण स्वीकार करने वाले । अर्थात् व्रत स्वीकार करने पर उसके पूर्ण भंग से पूर्व तक की स्खलना/त्रुटि/दोष/विराधना जो कि प्रायः अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार तक की श्रेणि की है- उनकी शुद्धि हेतु या व्रत-छिद्रों को ढाँकने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। जिस प्रकार प्रतिक्रमण का सामायिक आवश्यक नवें व्रत की सामायिक से भिन्न है उसी प्रकार प्रत्याख्यान आवश्यक भी सामान्य प्रत्याख्यान (चारित्र अथवा चारित्राचारित्र) से भिन्न मात्र तपरूप ही है। 'नाणदंसणचरित्त (चरित्ताचरित्त) तव-अइयार-चिंतणत्थं करेमिकाउस्सग्गं' 'देवसियपायच्छित्त-विसोहणत्वं करेमि काउस्सग्गं' आदि से भी यही ध्वनित होता है कि पूर्व गृहीतव्रतों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। प्रथम आवश्यक में अतिचारों को ध्यान में ले, चौथे आवश्यक में मिथ्यादुष्कृत दें, व्रतों के स्वरूप को (श्रमण सूत्र या श्रावक सूत्र) पुनः स्मृति में ले, मिथ्यात्व, अव्रत को तिलांजलि देता हुआ दर्शन, ज्ञान, चारित्र (चारित्राचारित्र) में पुनः दृढ़ बनने का मनोबल जगाता हुआ छठे आवश्यक में अनशन आदि बाह्य तप स्वीकार करने के पूर्व पाँचवें आवश्यक में व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) रूपी आभ्यंतर तप करता है। दसविध प्रायश्चित्त में तप के पश्चात् छेद, मूल का स्थान है, पर यहाँ तो वह प्रायश्चित्त रूपी तप भी नहीं, मात्र प्रथम के 3- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभयरूपी प्रायश्चित्त में गुणधारण के रूप में तप अंगीकार किया जाता है। अतः मूलगुण के प्रत्याख्यान अलग समझ पूर्वक ग्रहण करने की व्यवस्था युक्तियुक्त है, जैसे अंतगड, अनुत्तरौपपातिक में सर्व मूलगुण व उपासकदशा में देश मूलगुण प्रत्याख्यान स्वीकार करने के दृष्टान्त हैं। मिथ्यात्व-त्याग में खंधक जी (भगवती 2/1), शकडालपुत्र जी (उपासक 7), परदेशी राजा (रायप्पसेणिय), सुमुख गाथापति आदि (सुखविपाक) के उदाहरण हैं, उन्हें बोधि प्राप्त हुई, तदनन्तर उन्होंने प्रत्याख्यान ग्रहण किये। अतः इस आवश्यक से मिथ्यात्व आदि के त्याग का संबंध नहीं, उनके छूटने पर ही सुपच्चक्खाण
संभव है। प्रश्न 158. पाँच प्रतिक्रमण मुख्य रूप से कौन से पाठ से होते हैं?
मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण-अरिहंतो महदेवो, सण समकित के पाठ से। अव्रत का प्रतिक्रमण-पाँच महाव्रत और पाँच अणुव्रत से। प्रमाद का प्रतिक्रमण-आठवाँ व्रत और अठारह पापस्थान से।
उत्तर