________________
{192
[आवश्यक सूत्र
10. संथारे वाले को घर, परिवार, व्यापार, धन संबंधी बातों में न लगाकर धर्म संबंधी बातें सुनाते रहना चाहिए।
विधि - संथारे का योग्य अवसर देखकर साधु-साध्वीजी की सेवा में या उनके अभाव में अनुभवी श्रावक-श्राविका के सम्मुख अपने व्रतों में लगे अतिचारों की निष्कपट आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए । पश्चात् कुछ समय के लिए या यावज्जीवन के लिए आगार सहित अनशन लेना चाहिए। इसमें आहार और अठारह पाप का तीन करण- तीन योग से त्याग किया जाता है । यदि किसी का संयोग नहीं मिले तो स्वयं भी आलोचना कर संलेखना तप ग्रहण कर सकते हैं। यदि तिविहार ग्रहण करना हो तो 'पाणं' शब्द नहीं बोलना चाहिए। गादी, पलंग का सेवन, गृहस्थों द्वारा सेवा आदि कोई छूट रखनी हो तो उसके लिए आगार रख लेना चाहिए । संथारे के लिए शरीर व कषायों को कृश करने का अभ्यास संलेखना द्वारा करना चाहिए । प्रश्न 143. संलेखना कब धारण करनी चाहिए?
उत्तर
संलेखना के योग्य-काल का वर्णन करते हुए कहा गया है कि तिर्यञ्चों, मनुष्यों, देवों व अन्य उपसर्ग होने पर, भयंकर दुष्काल पड़ने पर, वृद्धावस्था आने पर, असाध्य रोग उत्पन्न होने पर इन्द्रिय-बल क्षीण होने पर अथवा अन्यान्य मृत्यु के कारणों के मिलने पर एवं निमित्तज्ञान आदि के द्वारा मरण समय समीप ज्ञात होने पर, शरीर में प्रकट होने वाले मरण चिह्नों को जानकर अत्यन्त उत्साह सहित संलेखना धारण करनी चाहिए।
प्रश्न 144. उपसर्ग के समय संथारा कैसे करना चाहिए?
उत्तर
उत्तर
जहाँ उपसर्ग उपस्थित हो, वहाँ की भूमि पूँज कर बड़ी संलेखना में आए हुए 'नमो' 'विहरामि' तक पाठ बोलना चाहिए और आगे इस प्रकार बोलना चाहिए “यदि उपसर्ग से बचूँ तो अनशन पालना कल्पता है, अन्यथा जीवन पर्यन्त अनशन है।'
,
प्रश्न 145. बड़ी संलेखना में मात्र अपने धर्माचार्य को ही नमस्कार किया है, अन्य आचार्यों व
साधु-साध्वियों को क्यों नहीं?
शरीर की अशक्तता, रुग्णता, वृद्धावस्था, आकस्मिक उपसर्ग, आतंक आदि कारणों में संलेखना संथारा किया जाता है। उस समय भी 'नमोत्थु णं' सिद्ध- अरिहन्त को देकर अपने धर्माचार्यधर्मगुरु के विशिष्ट उपकार होने से उन्हें यथाशक्य विधिपूर्वक वन्दना की जाती है । सभी साधुओं को वंदना कर पाने के सामर्थ्य की उस अवस्था में कल्पना करना कैसे युक्ति संगत समझा जा सकता है ? किसी को करे किसी को नहीं तो क्या पक्षपात या रागद्वेष की संभावना नहीं । अब