________________
परिशिष्ट-4]
189]
संक्लिष्ट परिणामों से करने पर प्रायः सभी अतिचार अनाचार हैं। नासमझी, भूल, विवशता आदि कारणों से ये अतिचार हैं, व्रत की शुद्धि के लिये ये भी त्याज्य हैं।
प्रश्न 136. पाप किसे कहते हैं?
उत्तर
जो आत्मा को मलिन करे, उसे पाप कहते हैं। जो अशुभ योग से सुखपूर्वक बाँधा जाता है और दुःखपूर्वक भोगा जाता है, वह पाप है। पाप अशुभ प्रकृतिरूप है, पाप का फल कड़वा, कठोर और अप्रिय होता है । पाप के मुख्य अठारह भेद है।
प्रश्न 137. पापों अथवा दुर्व्यसनों का सेवन करने से इस भव, परभव में क्या-क्या हानियाँ
होती हैं ?
उत्तर
1. पापों अथवा दुर्व्यसनों का सेवन करने से शरीर नष्ट हो जाता है, प्राणी को तरह-तरह के रोग घेर लेते हैं । 2. स्वभाव बिगड़ जाता है। 3. घर में स्त्री- पुत्रों की दुर्दशा हो जाती है । 4. व्यापार चौपट हो जाता है । 5. धन का सफाया हो जाता है। 6. मकान-दुकान नीलाम हो जाते हैं। 7. प्रतिष्ठा धूल में मिल जाती है। 8. राज्य द्वारा दण्डित होते हैं। 9. कारागृह में जीवन बिताना पड़ता है। 10. फाँसी पर लटकना पड़ सकता है । 11. आत्मघात करना पड़ता है। इस तरह अनेक प्रकार की हानियाँ इस भव में होती हैं। परभव में भी वह नरक, निगोद आदि में उत्पन्न होता है । वहाँ उसे बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं। कदाचित् मनुष्य बन भी जाय तो हीन जाति-कुल
जन्म लेता है। अशक्त, रोगी, हीनांग, नपुंसक और कुरूप बनता है। वह मूर्ख, निर्धन, शासित और दुर्भागी रहता है। अतः पापों अथवा दुर्व्यसनों का त्याग करना ही श्रेष्ठ है । प्रश्न 138. मिथ्यादर्शन शल्य क्या है?
उत्तर
जिनेश्वर भगवन्तों द्वारा प्ररूपित सत्य पर श्रद्धा न रखना एवं असत्य का कदाग्रह रखना मिथ्यादर्शन शल्य है । यह शल्य सम्यग्दर्शन का घातक है।
प्रश्न 139. निदानशल्य किसे कहते हैं?
उत्तर
धर्माचरण के द्वारा सांसारिक फल की कामना करना, भोगों की लालसा रखना अर्थात् धर्मकरण का फल भोगों के रूप में प्राप्त करने हेतु अपने जप-तप-संयम को दाव पर लगा देना ‘निदानशल्य' कहलाता है।
प्रश्न 140. प्रतिक्रमण में 18 पापों का पाठ बोला जाता है, किन्तु एक-एक पाप का स्मरण, अनुचिंतन और धिक्कार नहीं किया जाता। ऐसे किये बिना शुद्धि कैसे संभव है?