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5. आचारांग
उत्तर
[आवश्यक सूत्र सत्र में दिशाओं का क्रम भी आवर्तन के क्रम पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तर को _सूचित कर रहा है। 6. सामायिक सूत्र-उपाध्याय अमरमुनिजी, पृष्ठ 183, गुरुदेव के दाहिनी ओर से बायीं ओर ___ (Right to Left) तीन बार अंजलिपुट हाथ-घुमाकर आवर्तन करने का नाम ही प्रदक्षिणा है। 7. भगवती सूत्र शतक 1.1.20 की टीका के अनुसार वन्दनीय के दाहिनी तरफ से प्रदक्षिणा
करनी चाहिए। उक्त प्रमाणों में गुरुदेव के दाहिनी ओर से आवर्तन प्रारंभ करने का उल्लेख है, जो कि वन्दनकर्ता के बायीं ओर से प्रारंभ करने की सूचना देता है। ललाट के मध्य में दोनों हाथ रखकर अपने बायीं ओर से आवर्तन प्रारंभ करने चाहिए अर्थात् अपने स्वयं के बायें से दाहिनी ओर (Left to Right) दोनों हाथों को घुमाते हुए आवर्तन देना चाहिए। क्या आवर्तन का प्रारंभ ललाट के बीच से न करके दाहिने कान से भी किया जा सकता है? यद्यपि कुछ परम्पराओं में आवर्तन का प्रारंभ दाहिने कान से भी किया जाता है। वे दाहिने कान से ललाट पर लाते हुए बायें कान की ओर ले जाते हुए वापस दाहिने कान से ललाट तक आते हैं। किन्तु आवर्तन का समापन तो ललाट के मध्य में ही किया जाना चाहिए। यदि ललाट के मध्य में समापन करेंगे तो आवर्तन तीन से अधिक अर्थात् लगभग सवा तीन होंगे। अत: उपयुक्त यही है कि आवर्तन का प्रारंभ तथा समापन दोनों ही सिरसावत्तं मानकर ललाट के मध्य में होना चाहिए। तेजो लेश्या छोड़ने पर (भगवती शतक 15) इसकी किरणें रूप अजीव द्रव्य भी आत्मप्रतिष्ठित होने से सचित्त होता है। यह भी वंदनीय के दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करता है। सुखविपाक आदि में भी सम्यक्त्व के अभाव में भी इसी प्रकार से वंदना का उल्लेख है। भगवती शतक 12 उद्देशक 1 में उत्पला भार्या द्वारा पष्कलीजी के लिये 'वंदइनमंसह व पुष्कलीजी द्वारा शंखजी के लिये भी मात्र 'वंदइ नमसई' शब्द आया, अर्थात् श्राविकाजी द्वारा श्रावकजी को और श्रावकजी द्वारा श्राविकाजी को तीन बार आवर्तन बिना ही वंदना नमस्कार का उल्लेख है। वे ही श्रमणोपासक भगवान की तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा पूर्वक वंदन करते हैं। अर्थात् मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि श्रावक व साधुओं के साथ देवगण व इन्द्र भी एक समान आवर्तन करते रहे हैं, वह आवर्तन लोक प्रचलित धारणा के अनुरूप अपने दाहिनी ओर से नीचे-उतर बायें कान की ओर से ऊपर चढ़ने पर वंदनीय को दक्ष मान, दक्षता प्राप्ति के लिए उपयुक्त प्रतीत होता है।