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परिशिष्ट-1]
113} भोगों का स्मरण नहीं करने रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। ऐसा साधक इन्द्रियों के विकारों से रहित, जितेन्द्रिय एवं ब्रह्मचर्य गुप्ति का धारक होता है। साधु के लिए स्त्री सम्बन्धी बातों का वर्जन किया गया है। साध्वी के लिए ये ही सब पुरुष सम्बन्धी बातें वर्जित करनी चाहिए।
(5) स्निग्ध-सरसभोजन-त्याग-भावना-जो आहार घृतादि स्निग्ध पदार्थों से पूर्ण हो, जिसमें रस टपकता हो, ऐसे विकार वर्धक आहार का त्याग करना चाहिए । खीर, दही, दूध, मक्खन, तिल, गुड़, शक्कर, मिश्री, मधु आदि मिष्ठान्नों का नित्य आहार करने से शरीर में विकार उत्पन्न होता है। इसलिए ऐसे प्रणीत रस का त्याग करना चाहिये । जिस आहार के खाने से दर्प-विकार उत्पन्न हो और वृद्धि हो उसका नित्य सेवन न करे, न दिन में ही अधिक बार भोजन करे तथा शाक, दाल आदि का भी अधिक सेवन न करे । न प्रमाण से अधिक खावे । साधु उतना ही भोजन करे, जितने से उसकी संयम यात्रा का निर्वाह हो, चित्त में विभ्रम न हो और धर्म-भ्रष्ट भी नहीं हो । सरस आहार के त्याग रूप इस समिति का पालन करने से साधक की
अन्तरात्मा, प्रभावित होती है। वह मैथुन विरत मुनिजन्य विकारों से रहित, जितेन्द्रिय होकर ब्रह्मचर्य गुप्ति का पालक हो । साधु मद्य-मांस का तो सर्वथा त्यागी ही होता है।
5. पाँचवें-महाव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं-सचित्त-परिग्रह, अचित्तपरिग्रह, मिश्र-परिग्रह, भला (अच्छा) शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श पर राग, बुरे पर द्वेष किया हो, कराया हो, करते हुए को भला जाना हो, दिवस सम्बन्धी कोई पाप-दोष लगा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
(1) श्रोत्रेन्द्रिय-संयम-भावना-प्रिय एवं मनोरम शब्द सुनकर उनमें राग नहीं करना चाहिये । वे मनोरम शब्द कैसे हैं ? लोगों में बजाए जाने वाले मृदंग, पणव, दर्दुर, कच्छपी, वीणा, विपंची, वल्लकी, सुघोषा, नन्दी, उत्तम स्वर वाली परिवादिनी बंशी, तूणक, पर्वक, तंती, तलताल इन वाद्यों की ध्वनि, इनके निर्घोष और गीत सुनकर उन पर राग न करे तथा नट, नर्तक, रस्सी पर किए जाने वाले नृत्य, मल्ल, मुष्टिक (मुक्के से लड़ने वाले), आख्यायक (कहानी सुनाने वाले), खेल (बास पर खेलने वाले), मंख (चित्रपट बनाने वाले), तूण हल्ल, तूम्ब वीणिक व तालाचार से किये जाने वाले अनेक प्रकार के मधुर स्वर वाले गीत सुनकर आसक्त नहीं बने।
____ काँची, मेखला, प्रतारक, कलापक, मनोहर, घण्टिका, किंकिणी, पाचनालक, रत्नजालक, मुद्रिका, नूपुर, चरणमालिका और जाल की शब्द ध्वनि सुनकर तथा लीला पूर्वक गमन करती हुई युवतियों के आभूषणों के टकराने से उत्पन्न ध्वनि, तरुणियों के हास्य, वचन, मधुर एवं मंजुल कण्ठ स्वर, प्रशंसा युक्त मीठे वचन और ऐसे ही अन्य मोदक शब्द सुनकर साधु आसक्त नहीं बने, रञ्जित नहीं होवे, गृद्ध एवं मूर्च्छित नहीं बने, स्व पर घातक नहीं होवे, लुब्ध और प्राप्ति पर तुष्ट नहीं होवे, न हँसे और उसका स्मरण तथा विचार भी न करें।