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[आवश्यक सूत्र तेजमंडल (भामंडल) होता है। वह अन्धकार में भी दसों दिशाओं को प्रकाशित करता है। (13) उनके विचरने का भूमि भाग सम और रमणीय हो जाता है। (14) कण्टक अधोमुख हो जाते हैं। (15) ऋतुएँ अनुकूल और सुखदायी हो जाती है। (16) शीतल, सुखद और सुगन्धित वायु योजन प्रमाण भूमि का चारों ओर से प्रमार्जन करती है। (17) छोटी (आर वाली वर्षा द्वारा रज (आकाशवर्ती) और रेणु (भूवर्ती) का शमन हो जाता है । (18) जल और स्थल में उत्पन्न हुए हों, ऐसे 5 वर्ण के अचित्त फूलों की घुटने प्रमाण वर्षा होती है। फूलों के डंठल सदा नीचे की ओर रहते हैं। (19) अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध स्पर्श, का अपकर्ष (अभाव) होता है। (20) मनोज्ञ शब्द, रूप, स्पर्श, गन्ध का प्रादुर्भाव होता है।
(21) प्रवचन काल में उनका स्वर हृदय स्पर्शी और योजन गामी होता है। (22) भगवान अर्धमागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते हैं। (23) उनके मुख से निकली हुई अर्धमागधी भाषा सुनने वाले आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग (वन्य पशु), पशु (ग्राम्य पशु), पक्षी, सरीसर्प आदि को अपनी हित, शिव और सुखद भाषा में परिणत हो जाती है। (24) पूर्वबद्ध वैर वाले देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व और महोरग अर्हन्त के पास प्रशान्त चित्त और प्रशान्त मन वाले होकर धर्म सुनते हैं। (25) अन्य तीर्थिक प्रावचनिक भी पास में आने पर भगवान को वन्दना करते हैं। (26) तीर्थङ्कर देव के सन्मुख वे निरुत्तर हो जाते हैं। (27) तीर्थङ्कर भगवान जहाँ-जहाँ विहार करते हैं वहाँ-वहाँ 25 योजन में ईति (धान्य आदि का उपद्रव हेतु) नहीं होती । (28) मारी (हैजा, प्लेग) नहीं होती। (29) स्वचक्र (अपनी सेना का उपद्रव) नहीं होता। (30) परचक्र (दूसरे राज्य की सेना से होने वाला उपद्रव) नहीं होता।
(31) अतिवृष्टि नहीं होती । (32) अनावृष्टि (वर्षा का अभाव) नहीं होता। (33) दुर्भिक्ष (दुष्काल) नहीं होता । (34) पूर्व उत्पन्न उत्पात और व्याधियाँ शीघ्र ही उपशान्त हो जाती हैं।
(समवायाङ्ग सूत्र 34वाँ समवाय) टीका में लिखा है कि 2, 3, 4, 5 ये चार अतिशय जन्मजात होते हैं। बारहवाँ (भामण्डल) तथा 21वें अतिशय से 34वें अतिशय तक के ये 15 घातीकर्म के क्षय से उत्पन्न होते हैं। शेष अतिशय (पहला और 6 से 11 तथा 13 से 20) देवकृत होते हैं।
पैतीस सत्यवचनातिशय-तीर्थङ्कर देव की वाणी सत्य वचन के अतिशयों से सम्पन्न होती है। सत्य वचन के 35 अतिशय हैं। सूत्रों में संख्या मात्र का उल्लेख मिलता है। टीका में उन अतिशयों के नाम तथा उनकी व्याख्या है। यहाँ टीका के अनुसार ये अतिशय लिखे जाते हैं
शब्द सम्बन्धी अतिशय-(1) संस्कारत्व-संस्कृत आदि गुणों से युक्त होना अर्थात् वाणी का भाषा और व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष होना । (2) उदात्तत्व-उदात्त स्वर अर्थात् स्वर का ऊँचा होना । (3) उपचारोपेतत्व-ग्राम्य दोषों से रहित होना । (4) गम्भीर शब्दता-मेघ की तरह आवाज में गम्भीरता होना। (5) अनुनादित्व-आवाज का प्रतिध्वनि सहित होना । (6) दक्षिणत्व-भाषा में सरलता होना। (7)