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परिशिष्ट-2]
151} वाइयं = वात, पित्तियं = पित्त, कप्फियं = कफरूप त्रिदोष, संभीमं = भयंकर, सण्णिवाइयं = सन्निपात रोग न हो, विविहा = अनेक प्रकार के, रोगायंका = रोग (संबंधी पीड़ाएँ) और आतंक न आवे, परीसहा = क्षुधा आदि परीषह, उवसग्गा = उपसर्ग । देव, तिर्यंच आदि द्वारा दिये गये कष्ट, फासा फुसंतु = स्पर्श न करें ऐसा माना किन्तु अब, एवं पिय णं = इस प्रकार के प्यारे देह को, चरमेहिं = अन्तिम, उस्सास-णिस्सासेहिं = उच्छवास, नि:श्वास तक, वोसिरामि = त्याग करता हूँ, त्ति कट्ट = ऐसा करके, कालं अणवकंखमाणे = काल की आकांक्षा (इच्छा) नहीं करता हुआ, विहरामि = विहार करता हूँ, विचरता हूँ, इहलोगासंसप्पओगे = इस लोक में राजा चक्रवर्ती आदि के सुख की कामना करना, परलोगासंसप्पओगे = परलोक में देवता इन्द्र आदि के सुख की कामना करना, जीवियासंसप्पओगे = महिमा प्रशंसा फैलने पर बहुत काल तक जीवित रहने की आकांक्षा करना, मरणासंसप्पओगे = कष्ट होने पर शीघ्र मरने की इच्छा करना, कामभोगासंसप्पओगे = कामभोग की अभिलाषा करना।
भावार्थ-इसके बाद हे भगवान ! सबके पश्चात् मृत्यु के समीप होने वाली संलेखना अर्थात् जिसमें शरीर, कषाय, ममत्व आदि कृश (दुर्बल) किये जाते हैं, ऐसे तप विशेष के संलेखना का सेवन करना । संलेखना की आराधना धर्मस्थान अर्थात् पौषधशाला प्रतिलेखन कर मलमूत्र त्यागने की भूमि का प्रतिलेखन अर्थात् देखकर के जाने आने की क्रिया का प्रतिक्रमण कर डाभ (तृण, घास) का संथारा बिछाके संथारे पर आरूढ़ होकर के दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से आवर्तन (मस्तक पर जोड़े हुए हाथों को तीन बार अपनी बायीं ओर से दायें घुमा) करके मस्तक पर हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले-माया, निदान (नियाणा) और मिथ्यादर्शन इन तीन शल्यों से रहित नहीं करने योग्य और जो भी यह शरीर इष्ट कान्तियुक्त प्रिय, प्यारा मनोज्ञ, मनोहर मन के अनुकूल धैर्यशाली। धारण करने योग्य विश्वास करने योग्य मानने योग्य । सम्मत विशेष सम्मान को प्राप्त बहुमत (बहुत माननीय) जो देह आभूषण के करण्डक (करण्डिया डिब्बा) के समान रत्नों के करण्डक के समान जिसे शीत (सर्दी) न लगे, उष्णता (गर्मी) न लगे, भूख न लगे, प्यास न लगे, सर्प न काटे, चोरों का भय न हो, डाँस व मच्छर न सतावें, वात पित्त कफरूप त्रिदोष भयंकर सन्निपात रोग न हो, अनेक प्रकार के रोग (संबंधी पीड़ाएँ) और आतंक न आवे क्षुधा आदि परीषह उपसर्ग (देव, तिर्यंच आदि द्वारा दिये गये कष्ट) स्पर्श न करें ऐसा माना किन्तु अब इस प्रकार के प्यारे देह को अन्तिम उच्छवास, नि:श्वास तक त्याग करत हूँ ऐसा करके काल की आकांक्षा (इच्छा) नहीं करता हुआ विहार करता हूँ, विचरता हूँ इस लोक में राजा चक्रवर्ती आदि के सुख की कामना करना परलोक में देवता इन्द्र आदि के सुख की कामना करना, महिमा प्रशंसा फैलने पर बहुत काल तक जीवित रहने की आकांक्षा करना, कष्ट होने पर शीघ्र मरने की इच्छा करना, कामभोग की अभिलाषा करना।