________________
परिशिष्ट-2]
149} = औषध और भेषज (कई औषधियों के संयोग से बनी हुई गोलियाँ) आदि । पडिलाभेमाणे = देता हुआ (बहराता हुआ)। विहरामि = रहूँ। सचित्त-निक्व णया = साधु को नहीं देने की बुद्धि से अचित्त वस्तु को सचित्त जल आदि पर रखना । सचित्त-पिहणया = साधु को नहीं देने की बुद्धि से अचित्त वस्तु को सचित्त से ढक देना । कालाइक्कमे = भिक्षा का समय टाल कर भावना भायी हो । परववएसे = आप सूझता होते हुए दूसरों से दान दिलाया हो । मच्छरियाए = मत्सर भाव से दान दिया हो ।।12।।
भावार्थ-मैं अतिथिसंविभागव्रत का पालन करने के लिए निर्ग्रन्थ साधुओं को अचित्त, दोष रहित अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का, वस्त्र-पात्र, कंबल, पादपोंछन, चौकी, पट्टा, संस्तारक औषधि आदि का साधु-साध्वी का योग मिलने पर दान दूँ तब शुद्ध होऊँ, ऐसी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा है। यदि मैंने साधु के योग्य अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु पर रखा हो, अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढका हो, भोजन के समय से पहले या पीछे साधु को भिक्षा के लिए प्रार्थना की हो, दान देने योग्य वस्तु को दूसरे की बताकर साधु को दान नहीं दिया हो, दूसरे को दान देते ईर्ष्या की हो, दान देने योग्य वस्तु को दूसरे की बताकर साधु को दान नहीं दिया हो दूसरे को दान देते ईर्ष्या की हो, मत्सरभाव से दान दिया हो, तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरा वह सब पाप निष्फल हो।
बड़ी संलेखना का पाठ अह भंते ! अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा, झूसणा, आराहणा, पौषधशाला पूँज पूँज कर, उच्चारपासवण भूमि पडिलेह पडिलेह कर, गमणागमणे पडिक्कम पडिक्कम कर, दर्भादिक संथारा संथार संथार कर, दर्भादिक संथारा दुरूह दुरूह कर, पूर्व तथा उत्तर दिशा सम्मुख पल्यंकादिक आसन से बैठ-बैठ कर, करयल-संपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि-कट्ट एवं वयासी-नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, ऐसे अनन्त सिद्ध भगवान को नमस्कार करके, 'नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपाविउकामाणं' जयवन्ते वर्तमान काले महाविदेह क्षेत्र में विचरते हुए तीर्थंकर भगवान को नमस्कार करके अपने धर्माचार्य जी को नमस्कार करता हूँ। साधु प्रमुख चारों तीर्थों को खमा के, सर्व जीव राशि को खमाकर के, पहले जो व्रत आदरे हैं, उनमें जो अतिचार दोष लगे हैं, वे सर्व आलोच के. पडिक्कम करके. निंद के. निःशल्य होकर के. सव्वं पाणाडवायं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावायं पच्चक्खामि, सव्वं अदिण्णादाणं पच्चक्खामि, सव्वं मेहुणं पच्चक्खामि, सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि, सव्वं कोहं माणं जाव मिच्छादसणसल्लं सव्वं अकरणिज्जं जोगं पच्चक्खामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, मणसा, वयसा, कायसा, ऐसे अठारह पापस्थान पच्चक्ख के, सव्वं असणं, पाणं,