Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 183
________________ परिशिष्ट-2] 147} को भेजना या सेवक के साथ वस्तु को बाहर भेजना । सद्दाणुवाए = सीमा से बाहर के मनुष्य को खाँस कर या और किसी शब्द के द्वारा अपना ज्ञान कराना । रुवाणुवाए = रूप दिखाकर सीमा से बाहर के मनुष्य को अपने भाव प्रकट किये हों । बहिया-पुग्गल-पक्खेवे = बुलाने के लिए कंकर आदि फेंकना।।10।। भावार्थ-छठे दिग्व्रत के सदा के लिए जो दिशाओं का परिमाण किया है, देशावकाशिक व्रत में उसका प्रतिदिन संकोच किया जाता है। मैं उस संकोच किये गये दिशाओं के परिमाण से बाहर के क्षेत्र में जाने का तथा दूसरों को भेजने का त्याग करता हूँ। एक दिन और एक रात तक परिमाण की गई दिशाओं से आगे मन, वचन, काया से न स्वयं जाऊँगा और न दसरों को भेजॅगा। मर्यादित क्षेत्र में द्रव्यादि का जितना परिमाण किया है, उस परिमाण के सिवाय उपभोग-परिभोग निमित्त से भेजने का त्याग करता हूँ। मन, वचन, काया से मैं उनका सेवन नहीं करूँगा। देशावकाशिक व्रत की आराधना में यदि मैंने मर्यादा से बाहर की कोई वस्तु मंगाई हो, मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में किसी वस्तु को मंगाने के लिए या लेन-देन करने के लिए किसी को भेजा हो, मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य को शब्द करके अपना ज्ञान कराया हो, मर्यादा से बाहर के मनुष्यों को बुलाने के लिए अपना या पदार्थ का रूप दिखाया हो या कंकर आदि फेंककर अपना ज्ञान कराया हो तो मैं आलोचना करता हूँ। मेरा वह सब पाप निष्फल हो। 11. ग्यारहवाँ पडिपुण्ण पौषध व्रत-असणं, पाणं, खाइमं, साइमं का पच्चक्खाण, अबंभ सेवन का पच्चक्खाण, अमुकमणि सुवर्ण का पच्चक्खाण, मालावणग्गविलेवण का पच्चक्खाण, सत्थमूसलादिक सावज्जजोग सेवन का पच्चक्खाण, जाव अहोरत्तं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है, पौषध का अवसर आये, पौषध करूँ तब फरसना करके शुद्ध होऊँ एवं ग्यारहवाँ प्रतिपूर्ण पौषध व्रत के पंच-अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-1. अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय-सेज्जासंथारए, 2. अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय-सेज्जा-संथारए, 3. अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय-उच्चार-पासवण-भूमि, 4. अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय-उच्चार-पासवणभूमि, 5. पोसहस्स सम्मं अणणुपालणया, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। अन्वयार्थ-असणं = दाल-भात, रोटी, अन्न तथा शरबत, दूध आदि विगय । पाणं = पानी। खाइमं = फल मेवा आदि । साइमं = लोंग, सुपारी, इलायची, चूर्ण आदि भोजन के बाद खाने लायक स्वादिष्ट पदार्थ । अबंभ सेवन = मैथुन (कुशील-व्यभिचार) सेवन । अमुकमणि सुवर्ण = मणि, मोती तथा सोने-चाँदी आभूषण आदि । माला = फूल माला । वणग्ग = सुगन्धित चूर्ण आदि। विलेवण = चन्दन आदि का लेप । सत्थ = तलवार आदि शस्त्र । मूसलादिक = मूसल आदि औजार । सावज्जजोग = पाप सहित व्यापार । शय्यासंथारा = शयन आदि का आसन । अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय- = पौषध में शय्या संथारा न देखा हो या अच्छी, सेज्जासंथारए = तरह से न देखा हो। अप्पमज्जिय

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