Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 173
________________ परिशिष्ट-2] 137} न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा ऐसे पहले स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के पंच-अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-बंधे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्तपाण-विच्छेए, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। __ अन्वयार्थ-पहला अणुव्रत = पहला अणुव्रत (अणु यानी महाव्रत की अपेक्षा छोटा व्रत), थूलाओ = स्थूल (बड़ी), पाणाइवायाओ = प्राणातिपात (जीव हिंसा) से, वेरमणं = विरक्त (निवृत्त) होता हूँ। (जैसे वे) त्रसजीव = चलते फिरते प्राणी हैं। (चाहे वे) बेइन्द्रिय = दो इन्द्रिय वाले, तेइन्द्रिय = तीन इन्द्रिय वाले, चउरिन्द्रिय = चार इन्द्रिय वाले, पंचेन्द्रिय = पाँच इन्द्रिय वाले, संकल्प = मन में निश्चय करके, सगे सम्बन्धी = सम्बन्धी जनों का, स्वशरीर = अपने शरीर के उपचारार्थ, सापराधी = अपराध सहित त्रस प्राणी हिंसा को छोड़ शेष, निरपराधी = अपराध रहित प्राणी की हिंसा का, आकुट्टी = मारने की भावना से, हनने = मारने का, पच्चक्खाण = त्याग करता हूँ, जावज्जीवाए = जीवन पर्यन्त, दुविहं तिविहेणं = दो करण, तीन योग से अर्थात्, न करेमि = स्वयं नहीं करूँगा, न कारवेमि = दूसरों से नहीं कराऊँगा, मणसा वयसा कायसा = मन, वचन, काया से, बंधे = गाढ़े बन्धन से बाँधा हो, वहे = वध (मारा या गाढ़ा घाव घाला हो), छविच्छेए = अंगोपांग को छेदा हो, अइभारे = अधिक भार भरा हो, भत्तपाण-विच्छेए = भोजन पानी में बाधा की हो।।1।। भावार्थ-श्रावक के व्रत बार हैं, उनमें पाँच अणुव्रत मूल और सात उत्तरगुण कहलाते हैं। गृहीत व्रतों का देशत: उल्लंघन अतिचार कहलाता है। प्रत्येक व्रत के पाँच-पाँच अतिचार हैं। उनमें यहाँ अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचारों की शद्धि का विधान किया गया है। मैं स्व-संबंधी (अपने और अपने संबंधी जनों) के शरीर में पीड़ाकारी अपराधी जीवों को छोड़कर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय त्रस जीवों की हिंसा संकल्प करके मन, वचन और काया से न करूँगा और न कराउँगा। मैंने किसी जीव को यदि बंधन से बाँधा हो, चाबुक, लाठी आदि से मारा हो, पीटा हो, किसी जीव के चर्म का छेदन किया हो, अधिक भार लादा हो अथवा अन्न-पानी का विच्छेद किया हो तो वे सब पाप निष्फल हों। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ श्रावक अहिंसाणुव्रत में निरपराध त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का ही त्याग करता है। वह स्थावर जीवों की हिंसा का त्यागी नहीं होता। किन्तु उनकी भी निरर्थक हिंसा का त्याग करता है। त्रस जीवों में भी अपराधी की हिंसा का नहीं, केवल निरपराध जीवों की हिंसा त्यागता है और निरपराधों की भी संकल्पी हिंसा का-'मैं इसे मार डालूँ इस प्रकार की बुद्धि से घात करने का त्याग करता है। कृषि, गृहनिर्माण, व्यवसाय आदि में निरपराध त्रस जीवों का भी हनन होता है, तथापि वह आरंभी हिंसा है, संकल्पी नहीं। अतएव गृहस्थ श्रावक उसका त्यागी नहीं। इस कारण उसका पहला व्रत स्थूल प्राणातिपातविरमण कहलाता है। यह दो करण और तीन योग से स्वीकार किया जाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292