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परिशिष्ट-1]
121} उपनीतरागत्व-मालव, कोशिकादि ग्रामराग से युक्त होना अथवा स्वर में ऐसी विशेषता होना कि श्रोताओं में व्याख्येय विषय के प्रति बहुमान के भाव उत्पन्न हो।
अर्थ सम्बन्धी अतिशय-(8) महार्थत्व-अभिधेय अर्थ में प्रधानता एवं परिपुष्टता का होना, थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ कहना । (9) अव्याहत पौर्वापर्यत्व-वचनों पर पूर्वापर विरोध न होना । (10) शिष्टत्वअभिमत सिद्धान्त का कथन करना अथवा वक्ता की शिष्टता सूचित हो, ऐसा अर्थ कहना । (11) असन्दिग्धत्व-अभिमत वस्तु का स्पष्टता पूर्वक कथन करना कि श्रोता के दिल में सन्देह न रहे। (12) अपहृतान्योत्तरत्व-वचन का दूषण रहित होना व इसलिए शंका समाधान का मौका न आने देना। (13) हृदयग्राहित्व-वाच्य अर्थ को इस ढंग से कहना कि श्रोता का मन आकृष्ट हो एवं वह कठिन विषय भी सहज ही समझ जाय। (14) देशकालव्यतीतत्व-देश काल के अनुरूप अर्थ कहना। (15) तत्वानुरूपत्वविवक्षित वस्तु का जो स्वरूप हो उसी के अनुसार उसका व्याख्यान करना । (16) अप्रकीर्ण प्रसृतत्व-प्रकृत वस्तु का उचित विस्तार के साथ व्याख्यान करना अथवा असम्बद्ध अर्थ का कथन न करना एवं सम्बद्ध अर्थ का भी अत्यधिक विस्तार न करना । (17) अन्योन्यप्रगृहीतत्व-पद और वाक्यों का सापेक्ष होना । (18) अतिजातत्व-भूमिकानुसार विषय और वक्ता का होना । (19) अतिस्निग्धमधुरत्व-भूखे व्यक्ति को जैसे घी, गुड़ आदि परम सुखकारी होते हैं। उसी प्रकार स्नेह एवं माधुर्य परिपूर्ण वाणी का श्रोता के लिए सुखकारी होना । (20) अपरमर्मवेधित्व-दूसरे के मर्म (रहस्य) का प्रकाश न होना । (21) अर्थधर्माम्यनपेतत्व-मोक्ष रूप अर्थ एवं श्रुत चारित्र रूप धर्म से सम्बद्ध होना । (23) उदारत्व-प्रतिपाद्य अर्थ का महान् होना अथवा शब्द और अर्थ की विशिष्ट रचना होना । (23) परनिन्दात्मोत्कर्ष-विप्रयुक्तत्व-दूसरे की निन्दा एवं आत्म प्रशंसा से रहित होना । (24) उपघतश्लाघत्व-वचन में उपर्युक्त (परनिन्दात्मोत्कर्ष विप्रयुक्त्व) गुण होने से वक्ता की श्लाघा-प्रशंसा होना । (25) अनपनीतत्व-कारक, काल, वचन, लिंग आदि के विपर्यास रूप दोषों का न होना । (26) उत्पादिताविच्छिन्न-कुतूहलत्व-श्रोताओं में वक्ता विषयक निरन्तर कुतूहल बने रहना । (27) अद्भुतत्व-वचनों के अश्रुत पूर्व होने के कारण श्रोता के दिल में हर्ष रूप विस्मय का बने रहना। (28) अनतिविलम्बितत्व-विलंब रहित होना । (29) विभ्रमविक्षेपकिलिकिंचितादि-विप्रयुक्तत्व वक्ता के मन में भ्रान्ति होना विभ्रम है। प्रतिपाद्य विषय में मन न लगना विक्षेप है। रोष, भय, लोभ आदि भावों के सम्मिश्रण को किलिकिंचित् कहते हैं। इनसे तथा मन के दोषों से रहित होना । (30) विचित्रत्व-वर्णनीय वस्तु विविध प्रकार की होने के कारण वाणी में विचित्रता होना । (31) आहितविशेषत्व-दूसरे मनुष्यों की अपेक्षा वचनों में विशेषता होने के कारण श्रोता को विशिष्ट बुद्धि प्राप्त होना । (33) सत्त्वपरिगृहीतत्व-भाषा का ओजस्वी प्रभावशाली होना। (34) अपरिखेदितत्व-उपदेश देते हुए थकावट अनुभव न करना । (35) अव्युच्छेदित्व-जो तत्त्व समझना चाहते हैं उनकी सम्यक प्रकार से सिद्धि न हो तब तक बिना व्यवधान के उसका व्याख्यान करते रहना।