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[ आवश्यक सूत्र
उत्कृष्ट तीर्थङ्कर - जघन्य 20 तीर्थङ्कर उत्कृष्ट 160 तथा 170 होते हैं । एक महाविदेह में 32 विजय है । उनमें से प्रत्येक 8 विजय में कम से कम एक तीर्थङ्कर होते ही हैं, अत: एक महाविदेह में जघन्य 4 तीर्थङ्कर होते हैं। 5 महाविदेह की अपेक्षा 20 तीर्थङ्कर होते हैं । जब प्रत्येक विजय में एक-एक तीर्थङ्कर हो जाय तो कुल 160 तीर्थङ्कर (5 महाविदेह की अपेक्षा) हो जाते हैं । 5 भरत, 5 ऐरवत में भी यदि उस समय तीर्थङ्कर हो जाय तो कुल 170 तीर्थङ्कर हो जाते हैं ।
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सिद्ध-पद-भाव - वन्दना
दूजे पद “ णमो सिद्धाणं” श्री सिद्ध भगवान महाराज 15 भेदे अनन्त सिद्ध हुए हैं। आठ कर्म खा कर मोक्ष पहुँचे हैं । (1) तीर्थ सिद्ध, (2) अतीर्थ सिद्ध, (3) तीर्थङ्कर सिद्ध, (4) अतीर्थङ्कर सिद्ध, (5) स्वयं बुद्ध सिद्ध, (6) प्रत्येक बुद्ध सिद्ध, (7) बुद्ध बोधित सिद्ध, (8) स्त्रीलिंग सिद्ध, (9) पुरुषलिंग सिद्ध, (10) नपुंसकलिंग सिद्ध, (11) स्वलिंग सिद्ध, (12) अन्यलिंग सिद्ध, (13) गृहस्थलिंग सिद्ध, (14) एक सिद्ध, (15) अनेक सिद्ध ।
जहाँ जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दुःख नहीं, दारिद्र्य नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, चाकर नहीं, ठाकर नहीं, भूख नहीं, तृषा नहीं, ज्योत में ज्योत विराजमान सकल कार्य सिद्ध करके चौदह प्रकारे पन्द्रह भेदे अनन्त सिद्ध भगवन्त हुए हैं जो - (1) अनन्त ज्ञान, (2) अनन्त दर्शन (3) अव्याबाध सुख, (4) क्षायिक समकित (5) अटल अवगाहना, (6) अमूर्त,
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(7) अगुरु-लघु, (8) अनन्त आत्म-सामर्थ्य, ये आठ गुण कर के सहित हैं।
ऐसे श्री सिद्ध भगवान, दीनदयाल महाराज, आपकी दिवस सम्बन्धी अविनय आशातना की हो तो हे सिद्ध भगवान ! मेरा अपराध बारम्बार क्षमा करिये, मैं हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमाकर तिक्खुत्तो के पाठ से 1008 बार वंदना नमस्कार करता हूँ ।
तिक्खुत्तो याहिणं पयाहिणं करेमि, वंदामि, नम॑सामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि ।
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आप मांगलिक हो, आप उत्तम हो, हे स्वामिन्! हे नाथ! आपका इस भव, पर भव, भव भव में सदाकाल शरण होवे ।
आठ गुण - (1) अनन्त ज्ञान - ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से । (2) अनन्त दर्शन - दर्शनावरणीय कर्म क्षय से । (3) अव्याबाध सुख - वेदनीय कर्म के क्षय से । (4) क्षायिक समकित - मोहनीय कर्म के क्षय से । (5) अटल अवगाहना-आयुष्य के क्षय से । (6) अमूर्तिक-नाम कर्म के क्षय से । (7) अगुरुलघु-गोत्र कर्म के क्षय से । (8) अनन्त आत्मसामर्थ्य - अन्तराय कर्म के क्षय से ।