Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 166
________________ { 130 [आवश्यक सूत्र गति चौबीस दण्डक, चौरासी लाख जीवयोनि में सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त जीवों में से किसी जीव का हालते, चालते, उठते, बैठते, सोते जागते, हनन किया हो, हनन कराया हो, हनताँ प्रति अनुमोदन किया हो, छेदा हो, भेदा हो, किलामना उपजाई हो तो मन वचन काया करके (18,24,120) अठारह लाख चौबीस हजार एक सौ बीस प्रकारे जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।। 18,24,120 प्रकार-जीव के 563 भेदों को 'अभिहया वत्तिया' आदि दस विराधना से गुणा करने कर 5,630 भेद होते हैं। फिर इनको राग और द्वेष के साथ दुगुणा करने से 11,260 भेद बनते हैं। फिर इनको 3 करण और 3 योग से (9 से) गुणा करने पर 1,01,340 भेद बनते हैं। फिर इनको 3 काल से गुणा करने पर 3,04,020 भेद हो जाते हैं। फिर इनको पंच परमेष्ठि और स्वयं की आत्मा इन 6 से गुणा करने पर 18,24,120 प्रकार बनते हैं, कहीं पर पंच परमेष्ठि और स्वयं की आत्मा इन 6 के स्थान पर दिन में, रात्रि में, अकेले में, समूह में, सोते और जागते इन 6 से गुणा किया है। 563 x 10 x 2 x 3x3x3x 6 = 18,24,120 अन्तिम पाठ पहला सामायिक, दूसरा चउवीसत्थव, तीसरी वन्दना, चौथा प्रतिक्रमण, पाँचवाँ काउस्सग्ग और छट्ठा प्रत्याख्यान इन 6 आवश्यकों में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार जानते अजानते कोई दोष लगा हो तथा पाठ उच्चारण करते समय काना, मात्रा, अनुस्वार, पद, अक्षर, ह्रस्व, दीर्घ, न्यूनाधिक, विपरीत पढ़ने में आया हो तो अनन्त सिद्ध केवली भगवान की साक्षी से दिवस सम्बन्धी तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण, अव्रत का प्रतिक्रमण, प्रमाद का प्रतिक्रमण, कषाय का प्रतिक्रमण, अशुभ योग का प्रतिक्रमण इन पाँच प्रतिक्रमणों में से कोई प्रतिक्रमण नहीं किया हो या अविधि से किया हो, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप सम्बन्धी कोई दोष लगा हो तो दिवस सम्बन्धी तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। गये काल का प्रतिक्रमण, वर्तमान काल की सामायिक, आगामी काल के प्रत्याख्यान, जो भव्य जीव करते हैं, कराते हैं, करने वाले का अनुमोदन करते हैं उन महापुरुषों को धन्य है, धन्य है। शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था, ये पाँच व्यवहार समकित के लक्षण हैं, इनको मैं धारण करता हूँ। देव अरिहन्त, गुरु निर्ग्रन्थ, केवली भाषित दयामय धर्म ये तीन तत्त्व सार, संसार असार, भगवन्त महाराज आपका मार्ग सच्चं, सच्चं, सच्चं थवथुई मंगलं । 000

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