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परिशिष्ट-1]
111} परिकर्म वर्जित करने से) अन्तरात्मा विशुद्ध होती है और दुर्गतिदायक कृत्यों के करने, कराने रूप पाप कर्मों से निवृत्ति रहती है। यह प्रशस्त-आत्मा दत्तानुज्ञात आहारादि ग्रहण करने की रुचि वाली होती है।
(4) अनुज्ञात भक्तादि-भावना-साधु का कर्त्तव्य है कि वह गुरु आदि रत्नाधिक की आज्ञा प्राप्त करके ही अशन-पानादि का उपयोग करे । साथ के सभी साधुओं के लिए जो आहारादि सम्मिलित रूप से प्राप्त हुआ है, उसे सभी के साथ समिति एवं शान्ति के साथ खाना चाहिए । खाते समय ध्यान रखना चाहिये जिससे अदत्तादान का पाप नहीं लगे, उस सम्मिलित आहार में से शाकादि स्वयं अधिक न खावे । अपने भाग के आहार से न तो अधिक खाये और न शीघ्रता पूर्वक खाये । असावधानी न रखते हुए सोच समझकर उचित रीति से खावे । सम्मिलित रूप से प्राप्त आहार का संविभाग इस प्रकार करे कि जिससे तीसरे महाव्रत में किसी प्रकार का दोष नहीं लगे। यह अदत्तादान विरमण रूप महाव्रत बड़ा सूक्ष्म है । साधारण रूप से आहार और पात्र का लाभ होने पर समिति पूर्वक आचरण करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गतिदायक कुकृत्यों के करने कराने रूप पाप कर्म से दूर रहती है। वह पवित्रात्मा दत्तानुज्ञात आहारादि ग्रहण करने की रुचि वाली होती है।
(5) साधर्मिक-विनय-भावना-साधर्मिक साधुओं का विनय करे । ज्ञानी, तपस्वी एवं ग्लान साधु का विनय एवं उपकार करने में तत्पर रहे। सूत्र की वाचना तथा परावर्तन करते समय गुरु का वंदन रूप विनय करे । आहारादि दान प्राप्त करने और प्राप्त दान को साधुओं को देने तथा सूत्रार्थ की पुन: पृच्छा करते समय गुरु महाराज की आज्ञा लेने एवं वंदन करने रूप विनय करे। उपाश्रय से बाहर जाते और प्रवेश करते समय आवश्यकी तथा नैषधिकी उच्चारण रूप विनय करे। इस प्रकार अन्य अनेक सैंकड़ों कारणों पर विनय करता रहे । मात्र अनशनादि ही तप नहीं हैं, किन्तु विनय भी तप है। केवल संयम ही धर्म नहीं हैं किन्तु तप भी धर्म है। इसलिए गुरु, साधु और तपस्वियों का विनय करता रहे। इस प्रकार सदैव विनय करते रहने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गति के कारण ऐसे पाप कृत्यों के करने कराने रूप पाप कर्म से रहित होती है, इससे दत्तानुज्ञात को ग्रहण करने की रुचि होती है।
4. चौथे-महाव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं-काम-राग, स्नेह-राग, दष्टि-राग, देवता-देवी सम्बन्धी, मनुष्य-तिर्यञ्च सम्बन्धी, काम-भोग सेव्या हो, सेवाया हो, सेवते हए को भला जाना हो, दिवस सम्बन्धी कोई पाप-दोष लगा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
(1) विविक्त शयनासन-भावना-जिस स्थान पर स्त्रियों का संसर्ग हो, उस स्थान पर साधु सोवे नहीं, आसन लगाकर बैठे नहीं। जिस घर के द्वार का आँगन अवकाश स्थान (छत आदि), गवाक्ष (गोख)
आदि शाला अभिलोकन दूरस्थ वस्तु देखने का स्थान, पीछे का द्वार या पीछे का घर, शृङ्गार गृह और स्थान पर बैठकर स्त्रियाँ मोह, द्वेष, रति और राग बढ़ाने वाली अनेक प्रकार की बातें करती हो, ऐसी कथा कहानियाँ कहती हों और जिन स्थानों पर वेश्याएँ बैठती हों, उन स्थानों को वर्जित करें क्योंकि वे स्थान स्त्रियों के संसर्ग