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परिशिष्ट-1]
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(3) लोभ-त्याग - भावना - सत्य महाव्रत के पालक को लोभ से दूर रहना चाहिये । लोभ से प्रेरित मनुष्य का सत्यव्रत टिक नहीं सकता। वह झूठ बोलने लगता है। लोभ से ग्रसित मनुष्य क्षेत्र, वास्तु, कीर्ति, ऋद्धि, सुख, खानपान, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, आसन, शयन, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंच्छन, शिष्य और शिष्या के लिए और इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों से झूठ बोल सकता है। इसलिए मिथ्या भाषण के मूल इस लोभ का सेवन कदापि नहीं करना चाहिये। इस प्रकार लोभ का त्याग करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है । उस साधक के हाथ, पाँव, नेत्र और मुख संयम से शोभित होते हैं। वह शूरवीर साधक सत्य एवं सरलता से सम्पन्न होता है ।
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(4) भय - त्याग - भावना - भय को त्याग कर निर्भय बनने वाला साधक सत्य महाव्रत का पालक होता है । भयग्रस्त मनुष्य के सामने सदैव भय के निमित्त उपस्थित रहते हैं । भयाकुल मनुष्य किसी का हा नहीं बन सकता । भयाक्रान्त मनुष्य भूतों के द्वारा ग्रसित हो जाता है। एक डरपोक मनुष्य दूसरों को भी भयभीत कर देता है। डरपोक मनुष्य डर के मारे संयम और तप को भी छोड़ देता है। वह उठाये हुए भार को बीच में ही पटक देता है, पार नहीं पहुँचाता । भयभीत मनुष्य सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग में विचरण करने में समर्थ नहीं होता, इस प्रकार भय को पाप का कारण जानकर, त्याग करके निर्भय होना चाहिये। व्याधि, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु और ऐसे अन्य प्रकार के भयों से साधु को भयभीत नहीं होना चाहिये । धैर्य धरकर निर्भय होने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। निर्मल रहकर बलवान बनती है। निर्भय साधक के हाथ, पाँव, नेत्र और मुख संयमित रहते हैं । वह शूरवीर साधक सत्यधर्मी होता है एवं सरलता के गुण से सम्पन्न होता है।
(5) हास्य-त्याग-भावना- दूसरे महाव्रत के पालक को चाहिये कि वह हास्य न करे । (हँसी-मजाक) करने वाला मनुष्य मिथ्या और असत्य भाषण कर सकता है। हास्य दूसरे व्यक्ति का अपमान करने में कारणभूत बन जाता है। पराई निंदा करने में रुचि रखने वाले भी हास्य का अवलम्बन लेते हैं । हास्य दूसरों के लिए पीड़ाकारी होता है। हास्य से चारित्र का भेदन- विनाश होता है। हास्य एक दूसरे के मध्य होता है । और हास्य-हास्य में परस्पर की गुप्त बातें प्रकट हो सकती हैं। एक-दूसरे के गर्हित कर्म प्रकट हो सकते हैं। हास्य करने वाला व्यक्ति कान्दर्पिक और आभियोगिक भाव को प्राप्त होकर वैसी गति का बंध कर सकता है। हंसोड़ा मनुष्य आसुरी एवं किल्विषी भाव को प्राप्तकर वैसे देवों में उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार हास्य को अहितकारी जानकर त्याग करना चाहिए। इससे अन्तरात्मा पवित्र होती है। ऐसे साधक के हाथ, पाँव, नेत्र और मुख संयमित रहते हैं। वह हास्य-त्यागी, शूरवीर, सच्चाई और सरलता से सम्पन्न होता है । 3. तीसरे महाव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं - देव - अदत्त, गुरु-अदत्त, राज- अदत्त, गाथापति- अदत्त, सहधर्मी- अदत्त, इन पाँच अदत्तों में से किसी का अदत्त लिया हो, लिराया हो, लेते हुए को भला जाना हो, दिवस सम्बन्धी कोई पाप - दोष लगा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।