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[आवश्यक सूत्र (5) आदान-निक्षेपणा समिति-भावना-यह पाँचवीं भावना है। संयम साधना में उपयोगी उपकरणों को यतना पूर्वक ग्रहण करना एवं यतना पूर्वक रखना। साधु को पीठ (बाजोट), फलक (पाट), शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, दंड, रजोहरण, चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका, पादपोंच्छन आदि उपकरण संयम वृद्धि के लिए तथा वायु, आतप, दंशमशक और शीत से बचाव करने के लिए है। इन्हें राग-द्वेष रहित होकर धारण करना चाहिए और उपयोग में लेना चाहिए। इन उपकरणों की प्रतिलेखना (निरीक्षण करना), प्रस्फोटना (झटकना), प्रमार्जना (रजोहरण से पूँजना) करनी चाहिए। दिन और रात में सदैव अप्रमत्त रहता हुआ मुनि भण्डोपकरण ग्रहण करे, उठावे और रखे। इस प्रकार आदान निक्षेपणा समिति का यथावत् पालन करने से साधु की अन्तरात्मा अहिंसा धर्म से प्रभावित होती है। उसका चारित्र और आत्म-परिणाम निर्मल, विशुद्ध होता है और महाव्रत अखण्डित रहता है। वह संयमवान अहिंसक साधु मोक्ष का उत्तम साधक होता है।
2. दूसरे महाव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं-क्रोधवश, लोभवश, भयवश, हास्यवश, मृषावाद-झूठ बोला हो, बोलाया हो, बोलते हए को भला जाना हो, दिवस सम्बन्धी कोई पापदोष लगा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
(1) अनुवीचि समिति-भावना-सम्यक् प्रकार से विचार पूर्वक बोलना । गुरु से सम्यक् प्रकार से श्रवण करके संवर के प्रयोजन को सिद्ध करने वाला परमार्थ (मोक्ष) का साधक ऐसे सत्य को भली प्रकार से जानने के बाद बोले । बोलते समय न तो वेग युक्त (व्याकुलता युक्त) बोलना चाहिए न त्वरितता से (शीघ्रता पूर्वक) और न चपलता से बोलना चाहिए। भले ही वचन सत्य हो । ऐसे सावध वचनों का त्याग कर हितकारी परिमित अपने अभिप्राय को स्पष्ट करने वाले शुद्ध हेतु युक्त और स्पष्ट वचन विचारपूर्वक बोलना चाहिए। इस प्रकार इस ‘अनुवीचि समिति' रूप प्रथम भावना से साधक की अन्तरात्मा प्रभावित होती है। इससे साधक के हाथ, पाँव, आँखें व मुख संयमित रहते हैं। इस तरह करने से वह साधक शूरवीर होता है। वह सत्य एवं सरलता से सम्पन्न होता है।
(2) क्रोध-त्याग-भावना-साधक को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधी मनुष्य का रौद्र रूप हो जाता है। क्रोधावेश से वह झूठ भी बोल सकता है। पिशुनता-चुगली भी कर सकता है और कटु एवं कठोर वचन भी बोलता है । वह मिथ्या, पिशुन और कठोर ये तीनों प्रकार के वचन एक साथ बोल सकता है, क्रोधी मनुष्य क्लेश, वैर और विकथा कर सकता है । वह सत्य का हनन कर सकता है। क्रोधी मनुष्य दूसरों के लिए द्वेष का पात्र होता है। क्रोधाग्नि से जलता हुआ मनुष्य उपर्युक्त दोष और ऐसे अन्य अनेक दोष पूर्ण वचन बोलता है। इसलिए दूसरे महाव्रत के पालक को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध का त्याग कर क्षमा को धारण करने से अन्तरात्मा भावित होती है। ऐसे साधक के हाथ, पाँव, आँखें और वचन संयम में स्थित पवित्र रहते हैं, ऐसा शूरवीर साधक सत्यवादी एवं सरल होता है।