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परिशिष्ट-1]
107} समुदाय में गया हुआ साधु अज्ञात रहता हुआ अर्थात् अपना परिचय नहीं देता हुआ स्वाद में गृद्धता, लुब्धता एवं आसक्ति नहीं रखता हुआ गवेषणा करे । यदि आहार तुच्छ स्वादहीन या अरुचिकर मिले तो उस आहार पर या उसके देने वाले पर द्वेष नहीं लाता हुआ दीनता, विवशता या करुणा-भाव न दिखाता हुआ समभाव पूर्वक आहार की गवेषणा करे । यदि आहार नहीं मिले, कम मिले, अरुचिकर मिले तो मन में विषाद नहीं लावे और अपने को मन, वचन और काया के योगों से अखिन्न, (अखेदित) रखता हुआ संयम में प्रयत्नशील रहे। अप्राप्त गुणों की प्राप्ति में उद्यम करने वाला एवं विनयादि गुणों से युक्त साधु, भिक्षा की गवेषणा में प्रवृत्त होवे । सामुदानिक भिक्षाचरी से थोड़ा-थोड़ा आहार लेकर अपने स्थान पर आया हुआ साधु गुरुजन के समीप गमनागमन सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्ति के लिए ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करे । आहार दिखाये, फिर गुरुजन के निकट या गुरु के निर्देशानुसार गीतार्थादि मुनि के पास अप्रमत्त होकर विधिपूर्वक अतिचार रहित होकर अनेषणा जनित दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे । इसके बाद शान्त चित्त से सुख पूर्वक बैठे और कुछ समय तक ध्यान करे तथा ध्यान और शुभ योग का आचरण करता हुआ, ज्ञान का चिन्तन एवं स्वाध्याय करे और अपने मन को श्रुत-चारित्र रूप धर्म में स्थापित करे फिर आहार करता हुआ साधु मन में विषाद एवं व्यग्रता नहीं लाता हुआ मन को शुभयोग युक्त रखे। मन में धर्म की श्रद्धा, मोक्ष की अभिलाषा एवं क्रमानुसार आहार के लिए आमन्त्रित करे और उनकी इच्छानुसार उन्हें भाव पूर्वक आहार देने के पश्चात् गुरुजन की आज्ञा होने पर उचित स्थान पर बैठे।
फिर मस्तक सहित शरीर तथा करतल को भली प्रकार से पूँजकर आहार करे । आहार करता हुआ साधु आहार के स्वाद में मूर्च्छित नहीं होवे । गृद्ध, लुब्ध एवं आसक्त नहीं होवे । अपना ही स्वार्थ नहीं सोचे । विरस या रस रहित आहार हो तो उसकी निन्दा नहीं करे । मन को रस में एकाग्र नहीं करे । मन में कलुषता नहीं लावे । रसलोलुप नहीं बने । भोजन करता हुआ 'सुरसुर' ध्वनि नहीं होने दे। भोजन करने में न तो अतिशीघ्रता करे ना अति धीरे-विलम्ब पूर्वक करे । भोजन करते समय आहार का अंश नीचे नहीं गिरावे । ऐसे भाजन में भोजन करे जो भीतर से भी पूरा दिखाई देता हो अथवा भोजन स्थान अन्धकार युक्त न हो । भोजन करता हुआ साधु अपने मन, वचन और काया के योगों को वश में रखे । भोजन को स्वाद युक्त बनाने के लिए उसमें कोई अन्य वस्तु नहीं मिलावे अर्थात् संयोजना दोष और 'इंगाल दोष' नहीं लगावे। अरस आहार निंदा रूप 'धूमदोष' भी नहीं लगावे।
___ जिस प्रकार गाड़ी को सरलता पूर्वक चलाने के लिए उसकी धुरी में अंजन, तेल आदि लगाया जाता है और शरीर पर लगे हुए घाव को ठीक करने के लिए लेप-मरहम लगाया जाता है। उसी प्रकार संयम यात्रा के निर्वाह के लिए, संयम के भार को वहन करने के लिए तथा प्राण धारण करने के लिए भोजन करे इस प्रकार आहार समिति का सम्यक् रूप से पालन करने वाले साधु की अन्तरात्मा भावित होती है। उसका चारित्र व भावना निर्मल, विशुद्ध एवं अखण्डित होती है। वह संयमवंत अहिंसक साधु मोक्ष का उत्तम साधक होता है।