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[आवश्यक सूत्र इस प्रकार कानों से अरुचिकर लगने वाले अशुभ शब्द सुनाई दे तो द्वेष न करे । वे कटु लगने वाले शब्द कैसे हैं? आक्रोशकारी, कठोर, निन्दा युक्त, अपरटन (जोर से रोने रूप), आक्रन्दकारी, निर्घोष रसित (सूअर की बोली समान) शब्द सुनाई देने पर साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए। ऐसे अप्रिय शब्द यह श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी भावना है। इस भावना का यथातथ्य पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। शब्द मनोज्ञ या अमनोज्ञ, शुभ का अशुभ सुनाई दे उनके प्रति राग-द्वेष नहीं करने वाला संवृत्त साधु मन, वचन और काया से गुप्त होकर इन्द्रियों का निग्रह करता हुआ दृढ़ता पूर्वक धर्म का आचरण करे।
(2) चक्षुइन्द्रिय-संयम-भावना-सचित्त स्त्री, पुरुष, बालक और पशु-पक्षी आदि; अचित्तभवन, वस्त्राभूषण एवं चित्रादि; मिश्र-वस्त्राभूषणयुक्त पुरुषादि के मनोरम तथा आह्लादकारी रूप आँखों से देखकर उन पर अनुराग न लावें । काष्ट, वस्त्र और लेप से बनाए हुए चित्र, पाषाण, हाथी दाँत की बनाई हुई पाँच वर्ण और अनेक आकार युक्त मूर्तियाँ देखकर मोहित नहीं बने । इसी प्रकार गूंथी हुई मालाएँ, वेष्टित किए हुए गेंद आदि, चपड़ी लाख आदि भरकर एक-दूसरे से जोड़कर समूह रूप से बनाए हुए गजरे आदि और विविध प्रकार की मालाएँ देखकर राजी न हो, मन एवं नेत्र को अत्यन्त प्रिय एवं सुखकर लगने वाले वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर, छोटे जलाशय, पुष्करिणी, बावड़ी, दीर्घिका, गुंजालिका, सरोवर की पंक्ति, सागर, धातुओं की खानों की पंक्तियाँ, खाई, नदी, सरोवर, तालाब और नहर आदि उत्पल कमल, पद्म कमल आदि विकसित एवं सुशोभित पुष्प जिन पर अनेक प्रकार के पक्षियों के जोड़े क्रीड़ा करते हैं, सजे हुए मंडप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवाकुल, सभा, प्याऊ, मठ, सुन्दर शयन, आसन आदि पालकी, रथ, शकट, यान, युग्य, स्पन्दन, स्त्री, पुरुषों का समूह जो अलंकृत एवं विभूषित हो । सौम्य एवं दर्शनीय हो व पूर्वकृत तप के प्रभाव से सौभाग्यशाली तथा आकर्षित हो, जन मान्य हों, इन सबको देखकर साधु उनमें आसक्त नहीं बने । इसी प्रकार नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विडम्बक, कथक, तलतल, लासक, आख्यायक, लंख, मंख, तूण इल्ल, तुम्बबीणक और तालाचार आदि अनेक प्रकार के मनोहर
खेल करने वाले और इसी प्रकार के अन्य मनोहारी रूप देखकर साधु को आसक्त नहीं होना चाहिये यावत् उन रूपों का स्मरण एवं चिन्तन भी नहीं करना चाहिए।
मन को बुरे लगने वाले अशुभ दृश्यों को देखकर मन में द्वेष न लावे, वे अप्रिय रूप कैसे हैं ? गण्डमाल का रोगी, कोढ़ी, कटे हुए हाथ वाला या जिसका एक हाथ या एक पाँव छोटा हो, जलोदरादि उदर रोग हो, कुबड़ा, बौना, लँगड़ा, जन्मान्ध, काना, सर्पि रोग वाला, शूल रोगी, इन व्याधियों से पीड़ित, विकृत शरीरी, मृतक शरीर जो सड़ गया हो, जिसमें कीड़े कुलबुला रहे हो और घृणित वस्तु का ढेर तथा ऐसे अन्य प्रकार के अमनोज्ञ पदार्थों को देखकर, साधु उनसे द्वेष न करे यावत् घृणा न लावे । इस प्रकार चक्षु इन्द्रिय सम्बन्धी भावना से अपनी अन्तरात्मा को प्रभावित करता हुआ पवित्र रखता हुआ धर्म का आचरण करता रहे।