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[आवश्यक सूत्र से संक्लिष्ट होने से दोषोत्पत्ति के कारण हैं । ऐसे अन्य सभी स्थानों का साधु त्याग कर दे । जहाँ रहने से मन में भ्रान्ति उत्पन्न होकर ब्रह्मचर्य क्षति युक्त हो; ब्रह्मचर्य देशत: या सर्वत: नष्ट हो, आर्त और रौद्र ध्यान उत्पन्न हो, उन सभी स्थानों का त्याग करे । ब्रह्मचर्य को नष्ट करने वाले ये स्थान कुशील रूप पाप से डरने वाले साधु के लिए रहने योग्य नहीं है। इसलिये साधु-अन्तप्रान्त आवास-अन्त-इन्द्रियों के प्रतिकूल पर्णकुटी आदि, प्रान्त-शून्य गृह (श्मशानादि) रूप, ऐसे निर्दोष स्थान में रहे। इस प्रकार स्त्री और नपुंसक के संसर्ग रहित स्थान में रहने रूप समिति के पालन से अन्तरात्मा पवित्र होती है। जो साधु ब्रह्मचर्य के निर्दोष पालन में तत्पर होकर इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त रहता है, वह जितेन्द्रिय एवं ब्रह्मचर्य गुप्त कहलाता है।
(2) स्त्रीकथा-वर्जन-भावना-स्त्रियों के मध्य बैठकर विविध प्रकार की कथा वार्ता नहीं कहना, विब्बोय (स्त्रियों की कामुक चेष्टा), विलास (स्मित-कटाक्षादि), हास्य और शृङ्गार युक्त लौकिक कथा नहीं कहे । ऐसी कथाएँ मोह उत्पन्न करती हैं । वर-वधू सम्बन्धी रसीली बातें और स्त्रियों के सौभाग्य, दुर्भाग्य के वर्णन भी नहीं करना चाहिये । कामशास्त्र वर्णित महिलाओं के 64 गुण उनके वर्ण, गंध, देश, जाति, कुल, रूप, नाम, नैपथ्य (वेशभूषा) और परिजन सम्बन्धी वर्णन भी नहीं करना चाहिए। स्त्रियों के शृङ्गार, करुणाजन्य विलाप आदि तथा इसी प्रकार अन्य मोहोत्पादक कथा भी नहीं करनी चाहिये । ऐसी कथाएँ तप, संयम, ब्रह्मचर्य की घात और उपघात करने वाली होती हैं । ऐसी कथा कहना सुनना निषिद्ध है । मन में भी इस प्रकार का चिन्तन नहीं करना चाहिए । इस प्रकार स्त्री सम्बन्धी कथा से निवृत्त रहने रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा पवित्र रहती है। इस प्रकार निर्दोषता पूर्वक ब्रह्मचर्य का पालक साधु इन्द्रियों के विषयों से विरत रहकर जितेन्द्रिय तथा ब्रह्मचर्य गुप्ति का धारक होता है।
(3) स्त्री-रूप-दर्शनत्याग-भावना-ब्रह्मचारी पुरुष स्त्रियों की हास्य मुद्रा, रागवर्धक वचन, विकारोत्पादक चेष्टा, कटाक्षयुक्त दृष्टि, चाल, विलास (हाव-भाव) क्रीड़ा, कामोत्पादक शृंगारिक चेष्टाएँ, नाच, गीत, वाद्य, शरीर का गठन एवं निखार, वर्ण (रंग), हाथ, पाँव, आँखें, लावण्य, रूप, यौवन, पयोधर,
ओष्ठ, वस्त्र और आभूषण आदि से की हुई शरीर की शोभा और जंघा आदि गुप्त अंग तथा इसी प्रकार के अन्य दृश्य नहीं देखे। इन्हें देखने की चेष्टा तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात एवं उपघात करने वाली हैं और पाप कर्म युक्त है। ब्रह्मचर्य के पालक को स्त्रियों के रूप आदि का मन से भी चिन्तन नहीं करना चाहिये । न
आँखों से देखना चाहिये और न वचन से रूप आदि का वर्णन करना चाहिये । इस प्रकार स्त्रियों के रूपदर्शन-त्याग रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। वह साधु मैथुन से निवृत्त एवं इन्द्रिय लोलुपता से रहित होकर जितेन्द्रिय तथा ब्रह्मचर्य गुप्ति का धारक होता है।
(4) पूर्वभोग-चिन्तन-त्याग-भावना-गृहस्थ अवस्था में भोगे हुए काम भोग और की हुई क्रीड़ा तथा मोहक सम्बन्ध स्त्री, पुत्र आदि के स्नेहादि का स्मरण चिन्तन न करे । इन रूप से पूर्वावस्था के काम