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[आवश्यक सूत्र 10. निव्विगइयं-सूत्र (नीवी) मूल- निविगइयं पच्चक्खामि, अण्णत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं,
लेवालेवेणं, गिहिसंसटेणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, (पारिट्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं
वोसिरामि। भावार्थ-मैं विकृतियों का प्रत्याख्यान करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थसंसृष्ट, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्यम्रक्षित, पारिष्ठापनिक, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार उक्त नौ आगारों के सिवाय विकृति का परित्याग करता हूँ।
विवेचन-प्राकृत भाषा का मूल शब्द 'निव्विगइयं' है। आचार्य सिद्धसेन ने इसके दो संस्कृत रूपान्तर किये हैं। निर्विकृतिक और निर्विगतिक । आचार्य श्री घृतादि को विकृति हेतुक होने से विकृति और विगति हेतुक होने से विगति भी कहते हैं । जो प्रत्याख्यान विकृति से रहित हो वह निर्विकृतिक एवं निर्विगतिक कहलाता है। इसमें 9 आगार हैं। पूर्व में नहीं आए आगारों का अर्थ इस प्रकार है- पडुच्चमक्खिएणं (प्रतीत्य म्रक्षित)-म्रक्षित चुपड़े हुए को कहते हैं और प्रतीत्य का अर्थ-जैसा दिखाई दे, अत: प्रतीत्यम्रक्षित का अर्थ हुआ जो अच्छी तरह चुपड़ा न हो, किन्तु चुपड़ा हुआ जैसा हो अर्थात् मेक्षिताभास हो । प्रवचन सारोद्धार वृत्ति में कहा है कि-म्रक्षितमिव यवर्तते तत्प्रतीत्यम्रक्षित म्रक्षिताभासमित्यर्थः ।
तपस्या में कल्पनीय पानी तिविहार तपस्या में छ: प्रकार का पानी कल्पता है । पाणस्स लेवाडेण वा, अलेवाडेण वा, अच्छेण वा, बहले वा, ससित्थेणं वा, असित्थेणं वा।
(1) लेपकृत-वह पानी जो पात्र में उपलेप कारक हो लेपकृत कहलाता है, जैसे-दाल आदि का माँड तथा इमली, खजूर, द्राक्षा आदि का पानी।
(2) अलेपकृत-जिस पानी में पात्र में लेप न लगे, जैसे-छाछ आदि का निथरा हुआ और कांजी आदि का पानी।
(3) अच्छ-अच्छ का अर्थ स्वच्छ उष्णोदक है।
(4) बहल-तिल, चावल और जौ आदि का चिकना माँड बहल कहलाता है। बहल के स्थान पर कुछ आचार्य बहुलेप शब्द का प्रयोग भी करते हैं।
(5) ससिक्थ-जिसमें सिक्थ अर्थात् आटे आदि के कण भी हों।