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परिशिष्ट-1]
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संस्कृत छाया - इच्छामि खलु भगवन् युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् । दैवसिकं प्रतिक्रमणं तिष्ठामि दैवसिक-ज्ञान-दर्शन- चारित्र -तप- अतिचार - चिंतनार्थं करोमि कायोत्सर्गम् ।। अन्वयार्थ-इच्छामि णं भंते ! = हे भगवन् ! चाहता हूँ अर्थात् मेरी इच्छा है, तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे = इसलिए आपके द्वारा आज्ञा मिलने पर, देवसियं पडिक्कमणं = दिवस सम्बन्धी प्रतिक्रमण को, ठाएमि = करता हूँ । (व), देवसिय-नाण- दंसण = दिवस सम्बन्धी ज्ञान-दर्शन, चरित्त = चारित्र, तव = तप, अड्यार - चिंतणत्थं = अतिचारों का चिन्तन करने के लिए, करेमि काउस्सग्गं = कायोत्सर्ग करता हूँ ।
मूल
दंसण अइयारे (दर्शन सम्यक्त्व का पाठ)
अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिण-पण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं ॥ 1 ॥ परमत्थ-संथवो वा, सुदिट्ठ- परमत्थ- सेवणा वा वि । वावण्ण-कुदंसण- वज्जणा, य सम्मत्त - सद्दहणा ॥2 ॥
इअ सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं संका, कंखा, वितिगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवो ।
इस प्रकार श्री समकित रत्न पदार्थ के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं - 1. श्री जिन वचन में शंका की हो, 2. परदर्शन की आकांक्षा की हो, 3. धर्म के फल में सन्देह किया हो, 4. पर पाखण्डी की प्रशंसा की हो, 5. पर पाखण्डी का परिचय किया हो और मेरे सम्यक्त्व रूप रत्न पर मिथ्यात्व रूपी रज मैल लगा हो (इन अतिचारों में से मुझे कोई दिवस सम्बन्धी अतिचार लगा हो) तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
संस्कृत छाया - अर्हन्तो मम देवा, यावज्जीवनं सुसाधवः मम गुरवः जिनप्रज्ञप्तं तत्त्वं इति सम्यक्त्वं
मया ग्रहितम्।।1।।