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चतुर्थ अध्ययन - प्रतिक्रमण]
79} ___संभरामि-जं च न संभरामि-जिन दोषों की मुझे स्मृति है उनका प्रतिक्रमण करता हूँ और जिन दोषों की स्मृति नहीं भी रही है उनका भी प्रतिक्रमण करता हूँ।
जं पडिक्कमामि-आचार्य जिनदास ‘पडिक्कमामि' का अर्थ 'परिहरामि' करते हैं। शारीरिक दुर्बलता आदि विशेष परिस्थितिवश यदि मैंने करने योग्य सत्कार्य छोड दिया हो. न किया हो और न करने योग्य कार्य किया हो तो उन सब अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ। 'संघयणादि दौर्बल्यादिना जं पडिक्कमामि परिहरामि करणिज्जं, जं च न पडिक्कमामि अकरणिज्जं।
संजय-आचार्य जिनदास महत्तर कहते हैं-'संजतो सम्मं जत्तो करणिज्जेसु जोगेसु इत्यर्थः' अर्थात् अहिंसादि कर्त्तव्यों में सम्यक् प्रयत्न करने वाले पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मो-भूतकाल में किए गये पाप कर्मों की निन्दा एवं गर्दा के द्वारा प्रतिहत करने वाला और वर्तमान तथा भविष्य में होने वाले पाप कर्मों को अकरणता रूप प्रत्याख्यान के द्वारा रोकने वाला।
अट्ठारस सहस्स सीलंग रथधाराजेणो करेंति मणसा, णिज्जियाहारसण्ण सोइंदिए।
पुढवीकायारंभं, खंति जुआ ते मुणी वंदे ।। इस एक गाथा में 18,000 गाथाएँ बन जाती हैं । यथा मन से न करना ।
इसको क्षमादि 10 गुणों से गुणा करने पर 10 गाथाएँ बनती है। फिर इनको पृथ्वीकाय आदि 10 असंयम (पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अजीव) से गुणा करने पर 100 गाथाएँ बनती हैं। इनको श्रोत्रेन्द्रिय आदि 5 इन्द्रिय से गुणा करने पर 500 गाथाएँ बनती हैं। इनको 4 संज्ञा से गुणा करने पर 2,000 गाथाएँ बनती हैं, इनको मन, वचन और काया इन 3 योग से गुणा करने पर 6,000 गाथाएँ बनती हैं। इनको करना, कराना, अनुमोदना इन 3 करण से गुणा करने पर 18,000 गाथाएँ बनती हैं।
शील का अर्थ ब्रह्मचर्य तो है ही किन्तु शील का अर्थ संयम भी होता है । इसलिए ये 18,000 गाथाएँ शील सम्बन्धी, संयम सम्बन्धी कही जाती है।
सिरसा-समस्त शरीर में सिर मुख्य है अत: सिर से वंदन करने का अभिप्राय है-शरीर से वन्दन
करना।
मणसा-मन से वंदन-मानसिक वंदना का द्योतक है। मत्थएण वंदामि अर्थात् मस्तक झुकाकर वंदन करता हूँ, यह वाचिक वंदना का रूप है। अत: मानसिक, वाचिक और कायिक त्रिविधि वंदना का स्वरूप निर्देश होने से पुनरुक्ति दोष नहीं है।
मुहपत्तिय-समुत्थान सूत्र उद्देशक 3 में तथा पाथर्डी बोर्ड प्रकाशित आवश्यक सूत्र में मुहपत्तिय शब्द है।