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षष्ठ अध्ययन
प्रत्याख्यान पाँचवें अध्ययन में पूर्व संचित कर्मों का क्षय कहा गया है। इस छठे अध्ययन में नवीन बंधने वाले कर्मों का निरोध कहा जाता है अथवा पाँचवें अध्ययन में कायोत्सर्ग द्वारा अतिचार रूप व्रण की चिकित्सा का निरूपण किया गया है। चिकित्सा से अनन्तर गुण की प्राप्ति होती है इसलिये ‘गुण धारणा' नामक इस प्रत्याख्यान अध्ययन में मूलोत्तर गुणों की धारणा करते हैं।
प्रत्याख्यान का सामान्य अर्थ है-त्याग करना । प्रत्याख्यान में तीन शब्द है-प्रति+आ+आख्यान । अविरति एवं असंयम के प्रति अर्थात् प्रतिकूल रूप में 'आ' अर्थात् मर्यादा स्वरूप आकार के साथ 'आख्यान' अर्थात् प्रतिज्ञा को प्रत्याख्यान' कहते हैं। अथवा अमुक समय के लिए पहले से ही किसी वस्तु के त्यागकर देने को प्रत्याख्यान कहते हैं।
अविवेक आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा जानते हए दर्प आदि से लगे बड़े अतिचारों की प्रत्याख्यान शुद्धि करता है अत: प्रत्याख्यान को छठा स्थान दिया गया है अथवा प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा अतिचार की शुद्धि हो जाने पर प्रत्याख्यान द्वारा तप रूप नया लाभ होता है अत: प्रत्याख्यान को छठा स्थान दिया गया है।
जो साधक कायोत्सर्ग द्वारा विशेष चित्त शुद्धि एकाग्रता और आत्मबल प्राप्त करता है, वही प्रत्याख्यान का सच्चा अधिकारी है अर्थात् प्रत्याख्यान के लिए विशिष्ट चित्त-शुद्धि और विशेष उत्साह की अपेक्षा है जो कायोत्सर्ग के बिना संभव नहीं है अत: कायोत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान को स्थान दिया गया है।
अनुयोगद्वार सूत्र में प्रत्याख्यान का नाम ‘गुणधारणा' कहा है । गुणधारण का अर्थ है-व्रत रूप गुणों को धारण करना । प्रत्याख्यान के द्वारा आत्मा मन, वचन, काया की दुष्ट प्रवृत्तियों को रोककर शुभ प्रवृत्तियों पर केन्द्रित करता है। ऐसा करने से इच्छा निरोध, तृष्णा का अभाव, सुखशांति आदि अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है।
उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन में प्रत्याख्यान का फल इस प्रकार बताया है-पच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?