________________
[आवश्यक सूत्र
“काउस्सग्गेणं तीयपडुप्पण्णं पायच्छित्तं विसोहे । विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभरुव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ ।"
{84
अर्थात् कायोत्सर्ग करने से भूतकाल और वर्तमान काल के दोषों का प्रायश्चित्त करके जीव शुद्ध बनता है और जिस प्रकार बोझ उतर जाने से भारवाहक (मजदूर) सुखी होता है उसी प्रकार प्रायश्चित्त से विशुद्ध बना हुआ जीव शांत हृदय बनकर शुभ ध्यान- ध्याता हुआ सुखपूर्वक विचरता है ।
प्रायश्चित्त शुद्धि का पाठ
देवसिय पायच्छित्त विसोहणत्थं करेमि काउस्सग्गं ।
मूलसंस्कृत छाया - दैवसिकप्रायश्चित्तविशोधनार्थं करोमि कायोत्सर्गम्।
अन्वयार्थ-पायच्छित्त = प्रायश्चित्त, विसोहणत्थं = विशुद्धि के लिए, करेमि काउस्सग्गं = कायोत्सर्ग ।
= करता हूँ,
भावार्थ- मैं दिवस संबंधी प्रायश्चित्त की शुद्धि के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ ।
विवेचन - आगम साहित्य में कायोत्सर्ग के दो भेद किये गये हैं- द्रव्य और भाव । द्रव्य कायोत्सर्ग का अर्थ है-शरीर की चेष्टाओं का निरोध करके एक स्थान पर जिनमुद्रा से निश्चल एवं निस्पंद स्थिति में खड़े रहना । यह साधना के क्षेत्र में आवश्यक है परन्तु भाव के साथ । केवल द्रव्य का जैनधर्म में कोई विशेष महत्त्व नहीं है। साधना का प्राण है-भाव । भाव कायोत्सर्ग का अर्थ है- आर्त्त, रौद्र ध्यानों का त्यागकर धर्म तथा शुक्ल-ध्यान में रमण करना, मन में शुभ विचारों का प्रवाह बहाना, आत्मा के मूल स्वरूप की ओर गमन करना । कायोत्सर्ग में ध्यान की ही महिमा है।
---