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[आवश्यक सूत्र परिणिव्वायंति-‘परमसुहिणो (परमसुखिनः) भवंतीत्यर्थः' आत्मा परम सुखी बन जाता है किन्तु बौद्ध दर्शन की निर्वाण सम्बन्धी मान्यता है कि आत्मा का पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना निर्वाण है। इसका निराकरण परिणिव्वायंति' शब्द से होता है। यहाँ आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होकर अनन्त आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति हो जाती है।
__ सव्वदुक्खाणमंतं करेन्ति-सांख्यादि कुछ दर्शन आत्मा का सर्वथा बन्धन रहित होना मानते हैं। इनके अनुसार न तो आत्मा को कर्म बंध ही है और न तत्फल स्वरूप दुःखादि । दुःखादि सब प्रकृति के धर्म हैं, पुरुष अर्थात् आत्मा के नहीं । जैन दर्शन की यह मान्यता नहीं है।
कर्म बंध आत्मा को ही होता है । उन सभी शुभाशुभ कर्मों से रहित होना ही मोक्ष है। सदहामि-तर्क अगोचर सद्दहो, द्रव्य धर्म अधर्म । केइ प्रतीते युक्ति सुं, पुण्य पाप सकर्म ।। तप चारित्र ने रोचवो, कीजे तस अभिलाष । श्रद्धा प्रत्यय रुचि तिहुँ, जिन आगम साख ।। धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों पर विश्वास श्रद्धा है।
(समकित छप्पनी) पत्तियामि-प्रतीति-व्याख्याता के साथ तर्क-वितर्क करके युक्तियों द्वारा पुण्य पाप आदि को समझकर विश्वास करना प्रतीति है।
रोएमि-रुचि-व्याख्याता द्वारा उपदिष्ट विषय में श्रद्धा करके उसके अनुसार तप चारित्र आदि सेवन करने की इच्छा करना रुचि है।
अकप्पं-चरण करण रूप आचार व्यवहार को आगम की भाषा में कल्प कहा जाता है। आचार्य जिनदास महत्तर सामान्यत: कहे हुए एकविध असंयम के ही विशेष-विवक्षा भेद से दो भेद करते हैं-मूलगुण असंयम का तथा अकल्प शब्द से उत्तर गुण असंयम । फिर अब्रह्म शब्द से मूलगुण असंयम का तथा अकल्प शब्द से उत्तर गुण असंयम का ग्रहण करते हैं।
अकिरियं-आचार्य हरिभद्र अक्रिया को अज्ञान का ही विशेष भेद मानते हैं और क्रिया को सम्यग्ज्ञान का । अत: दार्शनिक भाषा में अक्रिया को नास्तिकवाद और क्रिया को आस्तिकवाद (साम्यवाद) कहा जाता है। आचार्य जिनदास अप्रशस्त अयोग्य क्रिया को अक्रिया कहते हैं और प्रशस्त, योग्य क्रिया को क्रिया कहते हैं। 'अप्पसत्था किरिया अकिरिया, इतरा किरिया इति।'
अमार्ग-मार्ग-पहले असंयम के रूप में सामान्यत: विपरीत आचरण का उल्लेख किया गया। तत्पश्चात् अब्रह्म आदि में उसी का विशेष रूप से निरूपण होता रहा है। अन्त में पुन: कहा जा रहा है कि मैं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय भाव आदि अमार्ग को विवेक पूर्वक त्यागता हूँ और सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद और अकषाय भाव आदि मार्ग को ग्रहण करता हूँ।