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चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण ]
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धर्म में चित्त को स्थिर करके सम्पूर्ण जीवों से मैं अपने अपराध की क्षमा चाहता हूँ और स्वयं भी उनके अपराध को क्षमा करता हूँ।। 3 ।।
राग-द्वेष, अकृतज्ञता अथवा आग्रह वश मैंने जो कुछ भी कहा हो, उसके लिए मैं मन, वचन, काय से सभी से क्षमा चाहता हूँ।। 4 ।।
विवेचन - जैन-धर्म, आज के धार्मिक जगत में क्षमा का सबसे बड़ा पक्षपाती है । जैन-धर्म को यदि क्षमा-धर्म कहा जाय तो यह सत्य का अधिक स्पष्टीकरण होगा । प्रस्तुत पाठ में आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधार्मिक कुल और गण; इनके ऊपर जो कुछ भी कषाय भाव किए हों, उन सब दुराचरणों की मन, वचन और काया से क्षमा माँगी गयी है।
मूल
संस्कृत छाया
क्षमापना - पाठ
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ति मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणई || 1 || एवमहं आलोइय-निन्दिय - गरहिय - दुर्गाछियं सम्मं । तिविहेणं पडिक्कंतो, वंदामि जिण - चउव्वीसं ॥ 12 ॥ “क्षमयामि सर्वान् जीवान्, सर्वे जीवाः क्षाम्यन्तु माम् । मैत्री मे सर्वभूतेषु, वैरं मम न केनापि ।। 1 ।।
एवमहमालोच्य, निन्दित्वा गर्हयित्वा जुगुप्सित्वा सम्यक् । त्रिविधेन प्रतिक्रामन्, वन्दे जिनानां चतुर्विंशतिम् ।। 2 ।। '
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अन्वयार्थ-खामेमि = क्षमा करता हूँ, सव्वे = सब, जीवा = जीवों को, सव्वे = सभी, जीवा = जीव, खमंतु = क्षमा करो, मे = मुझको, मित्ति = मित्रता है, मे = मेरी, सव्व भूएसु = सभी प्राणियों से, वेरं = शत्रुता, मज्झं = मेरी, न = नहीं, केणइ = किसी के साथ, एवमहं ( एवं अहं) = इस प्रकार मैं, आलोय आलोचना करके, निंदिय = आत्म साक्षी से निन्दा करके, गरिहिय = गुरु साक्षी से ग करके, दुगुंछियं = जुगुप्सा (ग्लानि - घृणा) करके, सम्मं = सम्यक् प्रकार से, तिविहेणं = मन, वचन, काया द्वारा, पडिक्कंतो = पापों से निवृत्त होता हुआ, वंदामि = वन्दना करता हूँ, जिण - चउव्वीसं = चौबीस अरिहन्त भगवान को ।
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भावार्थ- मैंने किसी जीव का अपराध किया हो तो मैं उससे क्षमा चाहता हूँ। सभी प्राणी मुझे क्षमा करें। संसार के प्राणिमात्र से मेरी मित्रता है, मेरा किसी से वैर-विरोध नहीं है। मैं अपने पापों की आलोचना, निंदा, गर्हा