________________
{ 44
[आवश्यक सूत्र अन्वयार्थ-पडिक्कमामि = मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, गोयरचरियाए = जैसे गाय ऊपर से थोड़ा = थोड़ा चरती है, ऐसे जिसमें गृहस्थ के यहाँ से थोड़ा-थोड़ा निरवद्य आहार ग्रहण किया जाय वैसी, गोचरी करने में, भिक्खायरियाए = भिक्षाचरी (गोचरी) में, उग्घाडकवाड = बिना आगल दिये हुए या थोड़े ढंके हुए किवाड़ को, उग्घाडणाए = अविधि से उघाड़ा हो (खोलने में), साणा वच्छादारा = कुत्ते, बछड़े या बच्चों का जो रास्ते में बैठे हों, संघट्टणाए = संघट्टा किया हो तथा लाँघा हो, मंडी पाहुडियाए = मंडी प्रभृति का ग्रहण किया हो (साधु के आने पर दूसरे भाजन में पहले उतारकर गृहस्थ चावल आदि दे, उसको मंडी प्रभृतिका कहते हैं।), बलिपाहुडियाए = दिशाओं में या अग्नि-पूजा के लिए बलि फैंक कर जो दिया जाय उसे बलि प्रभृतिका कहते हैं, उसका ग्रहण किया हो, ठवणा पाहुडियाए = भिक्षाचरी के लिए स्थापना करके रखी हुई भिक्षा में से दिया हुआ आहार लिया हो, संकिए = आधाकर्मी आदि दोष की शंका वाला आहार ग्रहण किया हो, सहसागारिए = सहसा किसी अकल्पनीय आहार आदि का ग्रहण किया गया हो, अणेसणाए = बिना एषणा किये आहार लिया हो, पाणेसणाए = बिना एषणा किए पीने योग्य पदार्थ लिया हो, पाण-भोयणाए = रस चलित अर्थात् सड़ जाने से जो जीव युक्त है, ऐसा भोजन लिया हो, बीयभोयणाए = सचित्त बीज वाली भिक्षा ली हो, हरिय-भोयणाए = दूब आदि सचित्त हरी युक्त भिक्षा ली हो, पच्छाकम्मियाए = आहार लेने के बाद जहाँ सचित्त पानी आदि का आरम्भ किया जाय, वैसी भिक्षा ली हो, पुराकम्मियाए = आहार लेने के पहले जहाँ सचित्त का आरम्भ हो, वैसी भिक्षा ली हो, अदिट्ठहडाए = अदृष्ट अर्थात् दृष्टि से बाहर से लाई हुई भिक्षा ली हो, दगसंसट्ठहडाए = सचित्त पानी से, गीले हाथ वगैरह में लाई हुई भिक्षा ली हो, रयसंसट्ठहडाए = सचित्त रज से भरे हुए हाथ वगैरह में लाई हुई भिक्षा ली हो, परिसाडणियाए = बिन्दु आदि नीचे गिरते हुए जो भिक्षा दी जाए, उसे ली हो, पारिठावणियाए = परठने योग्य पदार्थ वाली भिक्षा ली हो, ओहासणभिक्खाए = बिना सबल कारण के विशिष्ट द्रव्य की याचना करके भिक्षा ली हो, अथवा उच्च स्वर से माँग कर भिक्षा ली हो । (पूर्वोक्त दोष पुन: समुच्चय रूप से), जं उग्गमेणं = जो आधाकर्मी आदि 16 उद्गम के दोष से, उप्पायणेसणाए = धात्री आदि सोलह उत्पादन के दोष व शंकितादि दश एषणा के दोषों से, अपडिसुद्धं = सदोष आहार ग्रहण किया हो तथा, पडिगहियं परिभुत्तं वा = अथवा अज्ञातपन से ग्रहण करके भोगा हो, जं = जो उस आहार को, न परिठवियं = जानने पर नहीं परठा हो, इस तरह से, जो मे = जो मैंने, देवसिओ = दिवस सम्बन्धी, अइयारो = अतिचार, कओ = किया हो, तस्स = उसका वह, मिच्छा मि दुक्कडं = मेरा पाप मिथ्या निष्फल हो।
भावार्थ-गोचरचर्या रूप भिक्षाचर्या में, यदि ज्ञात अथवा अज्ञात किसी भी रूप में जो भी अतिचारदोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
अर्ध खुले किवाड़ों को खोलना, कुत्ते, बछड़े और बच्चों का संघट्ठा-स्पर्श करना, मंडीप्राभृतिक अग्रपिंड लेना, बलिप्राभृतिक-बलि के लिए तैयार किया हुआ भोजन लेना, स्थापनाप्राभृतिक-भिक्षुओं को