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चतुर्थ अध्ययन - प्रतिक्रमण]
43} सूत्रों में दिवाशयन अर्थात् दिन में सोने का निषेध किया गया है। जब दिन में सोना ही नहीं है; तब साधु को इस सम्बन्ध में दैवसिक अतिचार कैसे लग सकता है ? जैन धर्म स्याद्वादमय धर्म है। यहाँ एकान्त निषेध अथवा एकान्त विधान, किसी सिद्धान्त का नहीं है। उत्सर्ग और अपवाद का चक्र बराबर चलता रहता है। अस्तु, दिवाशयन का निषेध औत्सर्गिक है और कारणवश उसका विधान आपवादिक है। विहार यात्रा की थकावट से तथा अन्य किसी कारण से अपवाद के रूप में यदि कभी दिन में सोना पड़े तो अल्प ही सोना चाहिए। यह नहीं कि अपवाद का आश्रय लेकर सर्वथा ही संयम-सीमा का अतिक्रमण कर दिया जाय! इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर सूत्रकार ने प्रस्तुत शयनातिचार-प्रतिक्रमण-सूत्र का दैवसिक प्रतिक्रमण में भी विधान किया है।
बिइयं समणसुत्तं
गोचरचर्या सूत्र
(भिक्षा दोष निवृत्ति का पाठ) मूल- पडिक्कमामि, गोयरचरियाए, भिक्खायरियाए उग्घाड-कवाड
उग्घाडणाए, साणा वच्छादारा संघट्टणाए, मंडी पाहुडियाए, बलिपाहुडियाए, ठवणा पाहुडियाए, संकिए, सहसागारिए, अणेसणाए, पाणेसणाए पाण-भोयणाए, बीय-भोयणाए, हरिय-भोयणाए, पच्छाकम्मियाए, पुरेकम्मियाए, अदिट्ठहडाए, दगसंसठ्ठहडाए, स्यसंसट्टहडाए, परिसाडणियाए, पारिठावणियाए, ओहासणभिक्खाए, जं उग्गमेणं, उप्पायणेसणाए, अपरिसुद्धं, पडिगहियं, परिभुत्तं वा, जं न
परिठवियं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। संस्कृत छाया- प्रतिक्रामामि गोचरचर्यायां भिक्षाचर्यायामुद्घाटकपाटोद्धाटनया श्ववत्सदारक
संघट्टनया मण्डीप्राभृतिकया बलिप्राभृतिकया स्थापनाप्राभृतिकया शङ्किते सहसाकारिकेऽनेषणया पानैषणया प्राणभोजनया बीजभोजनया हरितभोजनया पश्चात्कर्मिकया पुर:कर्मिकयाऽदृष्टाहृतया उदकसंसृष्टाऽऽहतया रज:संसृष्टाहृतया पारिशाटनिक्या (पारिशातनिक्या) परिष्ठापनिक्या ओहासनभिक्षया यद् उद्गमेन उत्पादनैषणयाऽपरिशुद्ध प्रतिगृहीतं परिभुक्तं वा यन्न परिष्ठापितं तस्य मिथ्या मयि दुष्कृतम् ।।