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मंडी पाहुडियाए - मंडी पाहुडिया साहूम्मि आगए अग्गकूर मंडीय । अण्णम्मि भायणम्मि काउं तो देड़ साहुस्स ।।1 ॥ तत्थ पवत्तण दोसो न कप्पए तारिसाण सुविहियाणं ।।
मण्डी-ढक्कन को तथा उपलक्षण से अन्य पात्र को कहते हैं । उसमें तैयार किये हुए भोजन के कुछ अंश को पुण्यार्थ निकालकर जो रख दिया जाता है वह अग्रपिण्ड कहलाता है। यहाँ आधेय में आधार का उपचार है। अत: अग्रपिण्ड ही मण्डी कहलाता है। यह मण्डी की भिक्षा पुण्यार्थ होने से साधुओं के लिए निषिद्ध है । इस अग्रपिण्ड को भिक्षा में ग्रहण करना ‘मंडी प्राभृतिका' कहलाता है। अथवा साधु के आने पर पहले अग्र भोजन दूसरे पात्र में निकाल ले और फिर शेष में से दे तो वह भी मंडी प्राभृतिका दोष है, क्योंकि इसमें प्रवृत्ति दोष लगता है, अतः निषिद्ध है ।
बलिपाहुडियाए - बलिपाहुडियाए भण्णइ, चउद्दिसिं काउं अच्चणियं । 12 ।।
अग्गिम्मि व छिविउण, सित्थे तो देइ साहुणो भिक्खं ।।
[आवश्यक सूत्र
बलिपिंड (देवता के पूजार्थ रखी वस्तु) को लेना निषिद्ध है। अथवा साधुओं के आने पर अग्नि में और चारों दिशाओं में बलि फेंक कर जो आहार दिया जाता है वह बलिपिण्ड है । अत: आरम्भ में निमित्त होने से ग्रहण करना निषिद्ध है ।
पारिट्ठावणियाए-साधु को बहराने के बाद पात्र में रहे हुए शेष भोजन को जहाँ दाता द्वारा फेंक देने की प्रथा हो, वहाँ अयतना की सम्भावना होते हुए भी आहार लेना । आहार देने के पात्र में पहले से रहे हुए किसी भोजन को डालकर (फेंक कर दिया जाने वाला अन्य भोजन लेना ।
उज्झित आहार-जिसमें खाना कम और फेंकना अधिक पड़े ऐसा आहार लेना । पूर्व आहार को परठने के भाव से नया आहार ग्रहण करना ।
मूल
तइयं समणसुत्तं
काल प्रतिलेखना सूत्र (चाउक्काल सज्झायस्स का पाठ )
पडिक्कमामि चाउक्कालं सज्झायस्स अकरणयाए, उभओकालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए, दुप्पडिलेहणाए, अप्पमज्जणा, दुप्पमज्जणाए, अइक्कमे, वइक्कमे अइयारे, अणायारे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।