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चतुर्थ अध्ययन - प्रतिक्रमण]
61} हिंसाणुरंजितं रौद्रं, अट्ट कामाणुरंजेयम् ।
धम्माणुरंजियं धम्मं, सुक्कं झाणं निरंजणं ।। हिंसा से अनुरञ्जित (रंगा) हुआ ध्यान रौद्र और काम से अनुरञ्जित ध्यान आर्त कहलाता है। धर्म से अनुरञ्जित ध्यान धर्मध्यान कहलाता है और शुक्ल ध्यान पूर्ण निरंजन होता है।
क्रिया-सूत्र-कर्म बन्ध कराने वाली चेष्टा (हिंसा प्रधान दुष्ट व्यापार विशेष) क्रिया कहलाती है।
कामगुण-सूत्र-जो पौद्गलिक गुण वासनात्मक भावों को जगाने वाले हैं; उन्हें कामगुण कहते हैं। 'काम्यन्त इति कामाः ते च ते गुणाश्चेति कामगुणा इति।' अर्थात् पुद्गल जन्य वासनात्मक गुणों की प्राप्ति के लिए कामना करना ही वस्तुत: कामगुण है। आचार्य हरिभद्र ने इस प्रकार अर्थ किया है। काम्यन्त इति कामाः शब्दादयस्त एव स्वरूप गुणबंध हेतुत्वाद् गुणा इति।' अर्थात् संसारी जीवों के द्वारा शब्द रूप आदि की कामना की जाती है। अत: वे काम कहलाते हैं और गुण का अर्थ है-'रस्सी' । शब्दादि काम ही गुणरूप-बन्धन रूप होने से गुण है । अथवा विषय भोग काम के साधनों शब्दादि को कामगुण कहते हैं। कामगुण में गुण शब्द श्रेष्ठता का वाचक न होकर केवल बन्ध हेतु वाचक है।
महाव्रत-सूत्र-महान् पुरुषों के द्वारा आचरित, महान् अर्थ मोक्ष का प्रसाधन और स्वयं भी व्रतों में महान् होने से महाव्रत कहलाते हैं । उक्तं च-'जाति देशकालसमयाऽनवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम्' अर्थात् जाति आदि की सीमा से रहित सब अवस्थाओं में पालन करने योग्य महाव्रत कहलाते हैं।
समिति-सूत्र-'सम्-एकीभावेन इति:-प्रवृत्तिः समितिः शोभनेकाग्र परिणामचेष्टेत्यर्थः।' अर्थ-विवेक युक्त होकर प्रवृत्ति करना समिति है अर्थात् प्राणातिपात आदि पापों से निवृत्त रहने के लिए प्रशस्त, एकाग्रता पूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक् प्रवृत्ति समिति कहलाती है।
जीवनिकाय-निकाय शब्द का अर्थ है राशि । जीवों की राशि को जीवनिकाय कहते हैं। यही 6 काय नाम से भी प्रसिद्ध है। शरीर नाम कर्म के उदय से होने वाली औदारिक और वैक्रिय पुद्गलों की रचना और वृद्धि को काय कहते हैं। काय के भेद से जीव भी 6 प्रकार के हैं।
लेश्या-सूत्र-'लिश् संश्लेषणे' 'संश्लिष्यते आत्मा तैस्तैः परिणामान्तरैरिति लेश्याः।' अर्थात् आत्मा के जिन शुभाशुभ परिणामों के द्वारा शुभाशुभ कर्म संश्लेष होते हैं वे परिणाम लेश्या कहलाते हैं।
'कृष्णादि द्रव्य साचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः ।
स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्या शब्दः प्रवर्तते।।' । अर्थात् जैसे स्फटिक मणि के पास जिस वर्ण की वस्तु रख दी जाती है, स्फटिक मणि उसी वर्ण वाली प्रतीत होती है। उसी प्रकार कृष्णादि द्रव्यों के संसर्ग से आत्मा में भी उसी तरह का परिणाम होता है। यह परिणाम भाव लेश्या रूप है और कृष्णादि द्रव्य लेश्या है। यह लेश्या योगान्तर्गत द्रव्य है।