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[आवश्यक सूत्र प्रभु फरमाते हैं- “पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिहेइ। पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ।"
अर्थात् प्रतिक्रमण करने वाला व्रतों में बने हुए छिद्रों को बंद करता है फिर व्रतों के दोषों से निवृत्त बना हुआ शुद्ध व्रतधारी जीव आस्रवों को रोक कर तथा शबलादि दोषों से रहित शुद्ध संयम वाला होकर आठ प्रवचन माताओं में सावधान होता है और संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधिपूर्वक अपनी इन्द्रियों को उन्मार्ग से हटा कर सन्मार्ग (संयम मार्ग) में विचरण करता है यानी आत्मा संयम के साथ एकमेक हो जाती है । इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती है और मन आत्मा में रम जाता है । इस प्रकार प्रतिक्रमण-जो वापस लौटने की प्रक्रिया से चालू हुआ था, वह धीरे-धीरे आत्म-स्वरूप की स्थिति में पहुँच जाता है। यही है प्रतिक्रमण का पूर्ण फल । यही है प्रतिक्रमण की उपलब्धि।
मूल
चत्तारि-मंगलं का पाठ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि-पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलि-पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि। अरिहन्तों का शरणा, सिद्धों का शरणा, साधुओं का शरणा, केवली प्ररूपित दया धर्म का शरणा। चार शरणा दु:ख हरणा, और न शरणा कोय।
जो भव्य प्राणी आदरे, तो अक्षय अमर पद होय ।। संस्कृत छाया- चत्वारो मंगलम्-अर्हन्तो मंगलं, सिद्बा मंगलं, साधवो मंगलं, केवलिप्रज्ञप्तो
धर्मो मंगलम् । चत्वारो लोकोत्तमा:-अर्हन्तो लोकोत्तमाः, सिद्धा लोकोत्तमाः, साधवो लोकोत्तमाः, केवलिप्रज्ञप्तो धर्मो लोकोत्तमः । चतुरः शरणं प्रपद्ये अर्हतः शरणं प्रपद्ये, सिद्धान् शरणं प्रपद्ये, साधून् शरणं प्रपद्ये, केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं शरणं
प्रपद्ये ।। अन्वयार्थ-चत्तारि मंगलं = चार मंगल हैं, अरिहंता मंगलं = अरिहन्त मंगल हैं, सिद्धा मंगलं = सिद्ध मंगल
= साध ल हैं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं = केवली प्ररूपित दया धर्म
-काल
हमगल