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चतुर्थ अध्ययन
प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण जैन साधना का प्राणतत्त्व है। ऐसी कोई भी क्रिया नहीं जिसमें प्रमादवश स्खलना न हो सके । चाहे लघुशंका से निवृत्त होते समय, चाहे शौचनिवृत्ति करते समय, चाहे प्रतिलेखना करते समय, 1 , चाहे भिक्षा के लिए इधर-उधर जाते समय साधक को उन स्खलनाओं के प्रति सतत् जागरूक रहना चाहिये । उन स्खलनाओं के सम्बन्ध में किंचित् मात्र भी उपेक्षा न रखकर उन दोषों से निवृत्ति हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिये । क्योंकि प्रतिक्रमण जीवन को माँजने की एक अपूर्व क्रिया है।
साधक प्रतिक्रमण में अपने जीवन का गहराई से निरीक्षण करता है, उसके मन में, वचन में, काया में एकरूपता होती है। साधक साधना करते समय कभी क्रोध, मान, माया, लोभ से साधनाच्युत हो जाता है, उससे भूल हो जाती है तो वह प्रतिक्रमण के समय अपने जीवन को गहराई से अवलोकन कर एक-एक दोष का परिष्कार करता है । यदि मन में छिपे हुए दोष को लज्जा के कारण प्रकट नहीं कर सका, उन दोषों को भी सद्गुरु के समक्ष या भगवान की साक्षी से प्रकट कर देता है। जैसे कुशल चिकित्सक परीक्षण करता है और शरीर में रही हुई व्याधि को एक्स-रे आदि के द्वारा बता देता है, वैसे ही प्रतिक्रमण के साधक प्रत्येक प्रवृत्ति का अवलोकन करते हुए उन दोषों को व्यक्त कर हल्का बनता है।
प्रतिक्रमण साधक - जीवन की एक अपूर्व क्रिया है। यह वह डायरी है जिसमें साधक अपने दोषों की सूची लिख कर एक-एक दोष से मुक्त होने का उपक्रम करता है। वही कुशल व्यापारी कहलाता है, जो प्रतिदिन सायंकाल देखता है कि आज के दिन मैंने कितना लाभ प्राप्त किया है। जिस व्यापारी को अपनी आमदनी का ज्ञान नहीं है, वह सफल व्यापारी नहीं हो सकता । साधक को देखना चाहिये कि आज के दिन ऐसा कौन-सा कर्त्तव्य था जो मुझे करना चाहिये था, किंतु प्रमाद के कारण मैं उसे नहीं कर सका? मुझे अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिये था। इस प्रकार वह अपनी भूलों का स्मरण करता है । भूलों का स्मरण करने से उसे अपनी सही स्थिति का परिज्ञान हो जाता है। जब तक भूलों का स्मरण नहीं होगा, भूल को भूल नहीं समझा जायेगा, तब तक उनका परिष्कार हो नहीं सकता। साधक अनेक बार अपनी भूलों को भूल न मानकर उन्हें सही मानता है पर वस्तुत: वह उसकी भूलें ही होती हैं। कितने ही व्यक्ति भूल को भूल समझते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करते, पर जब साधक अन्तर्निरीक्षण करता है तो उसे अपनी भूल का परिज्ञान होता