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[आवश्यक सूत्र निसीहियाए-(मूल शब्द 'निसीहिया' इसका संस्कृत रूप नैषेधिकी होता है) आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं-'निषेधनं-निषेधः निषेधेन निर्वृता नैषेधिकी प्राकृतशैल्या छंदसत्वाद् नैषेधिकेत्युच्यते । ....नैषेधिक्या प्राणातिपातादि निवृत्तया तन्वा शरीरेणेत्यर्थः।' अर्थात् प्राणातिपातादि से निवृत्त (बने) हुए शरीर को नैषेधिकी कहते हैं। आचार्य जिनदास नैषेधिकी के शरीर, वसति स्थान और स्थण्डिल भूमि-इस तरह 3 अर्थ करते हैं । मूलत: नैषेधिकी शब्द आलय-स्थान का वाचक है। शरीर भी जीव का आलय है। अत: वह भी नैषेधिकी कहलाता है। निषेध का अर्थ त्याग है। मानव शरीर त्याग के लिए ही है। अत: वह नैषेधिकी कहलाता है। अथवा जीव हिंसादि पापाचरणों का निषेध-निवृत्ति करना ही जिसका प्रयोजन है वह शरीर नैषेधिकी कहलाता है। यापनीय नैषेधिकी का विशेषण है। जिसका अर्थ है-शारीरिक शक्ति । अत: ‘जावणिज्जाए' का अर्थ होता है कि मैं अपनी शक्ति से त्याग प्रधान नैषेधिकी शरीर से वन्दन करना
मिउग्गह-मितावग्रह का अर्थ आचार्य हरिभद्रसूरि इस प्रकार करते हैं-'चतुर्दिशमिहाचार्यस्य आत्मप्रमाणं क्षेत्र अवग्रहः, तमनुज्ञां विहाय प्रवेष्टुं न कल्पते' अर्थात् आचार्य (गुरुदेव) के चारों दिशा में आत्म-प्रमाण अर्थात् शरीर प्रमाण साढ़े 3 हाथ का क्षेत्रावग्रह होता है, इस अवग्रह में गुरु की आज्ञा बिना प्रवेश करना निषिद्ध है। इसी बात को प्रवचन सारोद्धार के वन्दन द्वार में आचार्य नेमिचन्द्रसूरि स्पष्ट करते हैं
आयप्पमाणमित्तो चउद्दिसि होई उग्गहो गुरुणो।
अणणुज्जायस्स सया, न कप्पए तत्थ पविसेउं ।।126 ।। अहोकायं-(अध: काय) शरीर का सबसे नीचे का भाग अध: काय है, अत: वे चरण ही हैं। कायसंफासं-(काय संस्पर्श) काया से अच्छी तरह स्पर्श करना। आचार्य जिनदास अर्थ करते हैं-अप्पणो काएण हत्थेहिं फुसिस्सामि।' आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार-‘कायेन निजदेहेन संस्पर्शः।'
पूरे शरीर से स्पर्श अर्थात् मस्तक के द्वारा स्पर्श करता हूँ। क्योंकि मस्तक शरीर का मुख्य अंग है। यहाँ शरीर से स्पर्श करने का तात्पर्य सारा शरीर समर्पित करता हूँ और उपलक्षण से वचन और मन का भी अर्पण समझ लेना चाहिए।
अप्पकिलंताणं-यहाँ अप्प (अल्प) शब्द स्तोकवाची न समझकर अभाववाचक समझना चाहिए। अत: अर्थ होगा-ग्लानि रहित-बाधा रहित।
जत्ता-तप, नियम, संयम, ध्यान स्वाध्यायादि योग की साधना में यतना-प्रवृत्ति है वही यात्रा है।
जवणिज्जं (यापनीय)-शरीर इन्द्रिय और नोइन्द्रिय की पीड़ा से रहित है, अर्थात् दोनों वश में हैं ? भगवती सूत्र-(सोमिल पृच्छा) में नोइन्द्रिय से तात्पर्य कषायोपशान्ति से है अर्थात् इन्द्रिय (विषय) और कषाय शरीर को बाधा तो नहीं देते हैं।