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[आवश्यक सूत्र जिनकी इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने स्तुति की है, वंदना की है, भाव से पूजा की है और जो सम्पूर्ण लोक में सबसे उत्तम हैं, वे तीर्थङ्कर भगवान मुझे आरोग्यय अर्थात् आत्म-स्वास्थ्य या सिद्धत्व अर्थात् आत्मशांति, बोधि-सम्ययक् दर्शनादि रत्नत्रय का पूर्ण लाभ तथा श्रेष्ठ समाधि प्रदान करें।।6।।
जो चन्द्रमाओं से भी विशेष निर्मल हैं, जो सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं, जो स्वयं भूरमण जैसे महासमुद्र के समान गंभीर हैं, वे सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि प्रदान करें, अर्थात् उनके आलम्बन से मुझे सिद्धि अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो।।7।।
विवेचन-आलोचना व कायोत्सर्ग द्वारा आत्मा को अशुद्ध से शुद्ध, विषम से सम एवं प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर अग्रसर करके साधक प्रभु स्तुति के लिए उपयुक्त आधारशिला तैयार करता है। इस आधारभित्ति के रखे जाने के पश्चात् ही उसका ध्यान प्रभु भक्ति की ओर जाता है और वह शुद्ध-बुद्ध परमात्मा का स्मरण, चिन्तन व कीर्तन करता है। इस सूत्र के द्वारा भक्त भगवान के प्रति अपने भक्ति-भाव का प्रदर्शन करता है। यह भक्ति-साहित्य की एक अमर एवं अलौकिक रचना है।
लोगस्स में वर्तमान चौबीसी के तीर्थङ्करों की स्तुति की गयी है। ये चौबीस ही तीर्थङ्कर हमारे परम आराध्य हैं । ये हमारी श्रद्धा के केन्द्र हैं। अत: उनकी स्तुति करने से हमें भी श्रद्धेय के समान बनने की प्रेरणा मिलती है। अत: ये हमारे जीवन को उच्च बनाने में आलंबन भूत हैं। ‘अपि' शब्द से ऐरावत क्षेत्र की चौबीसी व वर्तमान में महाविदेह के तीर्थङ्करों का भी ग्रहण हो जाता है। -आवश्यक मलयगिरीवृत्ति।।
धम्मतित्थयरे (धर्म तीर्थङ्कर) इसमें दो शब्द हैं धर्म और तीर्थ । धर्म शब्द का अर्थ इस प्रकार किया जाता है
दुर्गतौ पतत: जीवान्, यस्माद्धारयते ततः।
धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः।। अर्थात्-दुर्गति में पड़ते हुए जीवों को दुर्गति से बचाकर सद्गति में पहुँचावे, उसे धर्म कहते हैं। तीर्थ शब्द का अर्थ इस प्रकार है-'तीर्यतेऽनेन इति तीर्थम्' अर्थात् जिसके द्वारा संसार सागर को तिरा जाय । एक धर्म ही संसार समुद्र से तिराने वाला और सद्गति में पहुँचाने वाला है। अहिंसा, सत्य आदि धर्म को धारण करने वाले साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका होते हैं। ऐसे तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थङ्कर कहलाते हैं।
जिणे-'राग-द्वेष-कषायेन्द्रिय-परिषहोपसर्गाष्ट-प्रकार-कर्म जेतृत्वाज्जिनाः' अर्थात् राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, परिषह, उपसर्ग अष्टविध कर्म को जीतने वाले जिन कहलाते हैं।
कित्तिय-वचन से स्तुति करना । वंदिय-काया से नमस्कार करना । महिया-मन से भावपूजा करना । पूजा दो प्रकार की है। द्रव्यपूजा और भावपूजा।