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प्रथम अध्ययन - सामायिक ] द्वंद्व और तनाव का वातावरण बना रहता है। बर्बरता, पशुता, संकीर्णता व राग-द्वेष के विकार जन्तु पनपते रहते हैं। जब मानव समता से विचलित हुआ तब प्रकृति में विकृति, व्यक्ति में तनाव, समाज में विषमता, वातावरण में हिंसा के तत्त्व उभरे हैं। उन सभी को रोकने के लिए, सन्तुलन और व्यवस्था बनाये रखने के लिए सामायिक की आवश्यकता है। सामायिक समता का लहराता हुआ निर्मल सागर है। जो साधक उसमें अवगाहन कर लेता है, वह राग-द्वेष के कर्दम से मुक्त हो जाता है।
सामायिक की साधना बहुत ही उत्कृष्ट साधना है। अन्य जितनी भी साधनाएँ हैं, वे सभी साधनाएँ इसमें अन्तर्निहित हो जाती हैं। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने सामायिक को चौदह पूर्व का अर्थपिण्ड कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांगी रूप जिनवाणी का साररूप बताया है। रंग-बिरंगे खिले हुए पुष्पों का सार गंध है यदि पुष्प में गंध नहीं है, केवल रूप ही है तो वह केवल दर्शकों के नेत्रों को तृप्त कर सकता है, किन्तु दिल और दिमाग को ताजगी प्रदान नहीं कर सकता । दूध का सार घृत है। जिस दूध में घृत नहीं हैं, वह केवल नाममात्र का ही दूध है । घृत से ही दूध में पौष्टिकता रहती है। वह शरीर को शक्ति प्रदान करता है। इसी प्रकार तिल का सार तेल है। यदि तिलों में से तेल निकल जाए, इक्षु खण्ड में से रस निकल जाए, धान में से चावल निकल जाए तो निस्सार बन जाता है। वैसे ही साधना में से समभाव यानी सामायिक निकल जाये तो वह साधना भी निस्सार है। केवल नाम मात्र की साधना है। समता के अभाव में उपासना उपहास है। साधक मायाजाल के चंगुल में फँस जाता है। दूसरों की उन्नति को निहार कर उसके अन्तर्मानस में ईर्ष्या की अग्नि सुलगने लगती है, वैर विरोध के जहरीले कीटाणु कुलबुलाने लगते हैं। इसीलिये सामायिक की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
तात्पर्य यह है कि जब आत्मा पापमय व्यापारों का परित्याग कर समभाव में अवस्थित होता है, तब सामायिक होती है। आत्मा का काषायिक विकारों से अलग होकर स्वस्वरूप में रमण करना ही सामायिक है
और वही आत्म परिणति है। सामायिक में साधक बाह्य दृष्टि का परित्याग कर अन्तर्दृष्टि को अपनाता है, विषमभाव का परित्याग कर समभाव में अवस्थित रहता है, पर पदार्थों से ममत्व हटाकर निजभाव में स्थित होता है। जैसे अनन्त आकाश विश्व के चराचर प्राणियों के लिए आधारभूत है, वैसे ही सामायिक साधना आध्यात्मिक साधना के लिए आधारभूत है।
सामायिक के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए विविध दृष्टियों से सामायिक को प्रतिपादित किया गया है। नाम, स्थापना, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव आदि से उसका स्वरूप प्रतिपादित है । सामायिक करने वाला साधक साधना में इतना स्थिर होता है कि चाहे शुभ नाम हो चाहे अशुभ नाम हो उस नाम का उस साधक के अन्तर्मानस पर कोई असर नहीं होता । वह सोचता है कि आत्मा अनामी है, आत्मा का कोई नाम नहीं है, नाम