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[आवश्यक सूत्र मोक्ष के अभिमुख जो प्रस्तुति है, वह सामायिक है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने भी विशेषाश्यकभाष्य में यही परिभाषा स्वीकार की है। आवश्यकसूत्र की नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य और हारिभद्रीया वृत्ति, मलयगिरिवृत्ति आदि में सामायिक के विविध दृष्टियों से विभिन्न अर्थ किये हैं। सभी जीवों पर मैत्री भाव रखना सम है और सम का लाभ जिससे हो, वह सामायिक हैं। पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करना ही सावधयोग परित्याग कहलाता है। अहिंसा, समता प्रभृति सद्गुणों का आचरण निरवद्ययोग हैं। सावद्ययोग का परित्याग कर शुद्ध स्वभाव में रमण करना ‘सम' कहलाता है। जिस साधना के द्वारा उस 'सम' की प्राप्ति हो, वह सामायिक है। 'सम' शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है और 'अयन' का अर्थ आचरण है। अर्थात् श्रेष्ठ आचरण का नाम सामायिक है।
सामायिक की विभिन्न व्युत्पत्तियों पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उन सभी में समता पर बल दिया गया है। राग-द्वेष के विविध प्रसंग समुपस्थित होने पर आत्म स्वभाव में सम रहना, वस्तुतः सामायिक है । समता से तात्पर्य है-मन की स्थिरता, राग-द्वेष का उपशमन और सुख-दु:ख में निश्चल रहना, समभाव में उपस्थित होना । कर्मों के निमित्त से राग-द्वेष के विषमभाव समुत्पन्न होते हैं। उन विषम भावों से अपने आपको हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना, समता है। समता को ही गीता में योग कहा है।
___ मन, वचन और काय की दुष्ट वृत्तियों को रोककर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान को केन्द्रित कर देना सामायिक है। सामायिक करने वाला साधक मन, वचन और काय को वश में कर लेता है। विषय, कषाय और राग-द्वेष से अलग-थलग रहकर वह सदा ही समभाव में स्थित रहता है। विरोधी को देखकर उसके अन्तर्मानस में क्रोध की ज्वाला नहीं भड़कती और न ही हितैषी को देखकर वह राग से आह्लादित होता है। वह समता के गहन सागर में डुबकी लगाता है, जिससे विषमता की ज्वालाएँ उसकी साधना को नष्ट नहीं कर पातीं। उसे न निन्दा के मच्छर ढुसते हैं और न ईर्ष्या के बिच्छू ही डंक मारते हैं। चाहे अनुकूल परिस्थिति हो चाहे प्रतिकूल, चाहे सुख के सुमन खिल रहे हों, चाहे दु:ख के नुकीले काँटे बींध रहे हों, पर वह सदा समभाव से रहता है। उसका चिन्तन सदा जाग्रत रहता है । वह सोचता है कि संयोग और वियोग-ये दोनों ही आत्मा के स्वभाव नहीं है। ये तो शुभाशुभ कर्मों के उदय के फल हैं । परकीय पदार्थों के संयोग और वियोग से आत्मा का न हित हो सकता है और न ही अहित इसलिए वह सतत् समभाव में रहता है। आचार्य भद्रबाहु ने
-जो साधक त्रस और स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता है, उसकी सामायिक शद्ध होती है। जिसकी आत्मा समभाव में, तप में, नियम में संलग्न रहती है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है।
आचार्य हरिभद्र ने लिखा है-जैसे चन्दन, काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुगन्धित बना देता है, वैसे ही विरोधी के प्रति भी जो समभाव की सुगन्ध फैलाता है, उसी की सामायिक शुद्ध है।
समता के द्वारा साधक आत्मशक्तियों को केन्द्रित करके अपनी महान् ऊर्जा को प्रकट करता है। मानव अनेक कामनाओं के भँवरजाल में उलझा रहता है, जिससे उसका व्यक्तित्व क्षत-विक्षत हो जाता है।